#sexuality_notes_by_Anupama - 3
मैंने और एक लड़के ने आपसी सहमती से शारीरिक संबंध बनाए। कुछ महीनों से हमारा ये रिलेशन, जोकि सिर्फ शारिरिक संतुष्टि के लिए है, सही चल रहा है। हम एक दूसरे के साथ काफी कम्फर्ट महसूस करते हैं। पर मेरी दुविधा ये है कि मैं जब भी उस से मिलकर आती हुं, बहुत खालीपन महसूस करती हुं। मैंने जीवन के उस मोड़ पर ये संबंध बनाया जब मुझे प्रेम की बहुत ज़रूरत महसूस हो रही थी। जब से उसके साथ हूं तब से मुझे और ज्यादा खालीपन लग रहा और इमोशनल सपोर्ट की ज़रूरत महसूस हो रही है। लेकिन उसका साथ मुझे पसंद है, मैं कुछ ही वक्त के लिए सही पर प्रेम महसूस कर पाती हूं उसकी वजह से।
अपनी राय दें।
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मेरी दोस्त, आपके प्रश्न से इतना समझ पायी कि आप महिला हैं | शायद सिंगल भी हैं | आपकी दुविधा समझ सकती हूँ | इस स्थिति को देखने के कई पहलू हैं, अतः मेरा उत्तर थोड़ा लम्बा हो सकता है | अगर संभव हो तो थोड़े धैर्य के साथ पढें :)
मेरी राय तो नहीं कहूँगी, लेकिन मेरा दृष्टिकोण इस स्थिति के बारे में जैसा है, वो बता रही हूँ | यदि उसमें से आपके कुछ और सवाल हों, तो फॉर्म में फिर से लिख सकती हैं |
प्रेम और सेक्स दो अलग अलग बातें हैं | प्रेम कई प्रकार का होता है, उनमें से प्रेम का एक प्रकार रोमांटिक या सेक्सुअल अट्रैक्शन भी है | इसलिए सबसे पहले अपने आप के साथ कुछ देर बैठ कर ये देखें कि आपने जब ये रिश्ता शुरू किया, तब भावनात्मक प्रेम की चाह थी, या यौन तृप्ति की? यदि इस रिश्ते से आपकी उम्मीद सिर्फ शारीरिक सुख की थी, और यदि वह सुख आप दोनों सहमति से, आनंदपूर्वक एक दूसरे से प्राप्त कर रहे हैं, तो फिर ये जो खालीपन आपको महसूस हो रहा है, ये कहाँ से आ रहा है इसे देखें | क्या ये खालीपन हमारी कंडीशनिंग का हिस्सा तो नहीं ?
अक्सर हमारे आस पास लोग ऐसा दिखाते हैं कि उनकी रिलेशनशिप्स बहुत खुश हैं, वो बहुत प्रेम में हैं, वो बहुत सेक्सुअली संतुष्ट हैं | लेकिन ये इसलिए क्योंकि हमें लगता है, हम जैसे ही कहेंगे कि हमें संतुष्टि नहीं मिली, हमें जज किया जायेगा | हमें बुरी लड़की, या आवारा लड़के का तमगा मिल जायेगा | अब क्योंकि हम अपने आसपास हमेशा ये ही देखते हैं, तो हम अपने आप से, और अपने पार्टनर से भी ऐसी ही ऊंरेअलिस्टिक संतुष्टि की उम्मीद भी लगा बैठते हैं |
कभी कभी, इसके उलट ये भी होता है, कि किसी रिश्ते की शुरुआत तो होती है एक दृष्टिकोण के साथ, लेकिन समय के साथ साथ, एक या दोनों व्यक्ति की भावनाएं, ज़रूरतें बदल जाती हैं | कई बार हम अपने साथी को ये बताते ही नहीं | इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, झिझक, 'कहीं मेरे हाथ से ये भी न चला जाये' का डर, 'लेकिन हमने यहाँ से शुरू नहीं किया था, अब बोलेंगे तो साथी क्या समझेंगे?' का जजमेंट आदि | लेकिन बिना बताये तो कभी पता भी नहीं चलेगा कि सामने वाला इस बारे में क्या सोचता है? इसलिए संवाद से डर लगने के बाद भी संवाद ज़रूरी है ! ये संभव है कि आपने जो रिश्ता बिना उम्मीदों के शुरू किया, उससे अब आपकी ज़रूरतें बदल रही हों | ये भी संभव है कि आपके साथी को भी ऐसा लग रहा हो | ऐसे में बात करें ताकि सही स्थिति की पूरी समझ विकसित हो पाए |
इस स्थिति को देखने का एक और पहलू भी है | वो है Rebound और New Relationship Energy | जैसा आपने कहा - इस रिश्ते की शुरुआत एक ऐसे समय में हुयी, जब आपको प्रेम की बहुत आवश्यकता महसूस हो रही थी | कभी कभी, हम एक रिश्ते में से जब बाहर आते हैं, तो बहुत टूटे हुए होते हैं | ऐसे में किसी भी नए रिश्ते की शुरुआत, कुछ दिन, कुछ हफ़्तों, कुछ महीनों तक तो सुकून दे सकती है | लेकिन ऐसे किसी भी रिश्ते की नींव आम तौर पर कच्ची होती है, और बिना सुदृढ़ नींव के रिश्तों में एक समय के बाद खोखलापन मासूस होना लाज़िमी है | ऐसा नहीं है कि ये खोखलापन ठहराव वाले, लॉन्गटर्म रिश्तों में आ सकता | लेकिन बिना पिछले रिश्ते को प्रोसेस किये, जब नए रिश्ते बनाये जाते हैं, तो ऐसा खालीपन देखने को ज़्यादा मिलता है | बहुत बार ऐसे में हम एक के बाद एक शार्ट टर्म अफेयर्स करते जाते हैं | इसमें नैतिक रूप से कुछ गलत नहीं है, लेकिन, यह रिलेशनशिप की ज़रुरत पूरी नहीं करता | ऐसे में कई बार यह भाव भी घर कर सकता है मन में, कि शायद मैं किसी रिलेशनशिप के लायक ही नहीं हूँ | जबकि इनमें से कुछ भी सच नहीं होता |
हर रिश्ते की एक New Relationship Energy या यूं समझ लें कि एक हनीमून पीरियड भी होता है | ये वो समय है जब रिश्ता नया है, समस्याएं कम और सब कुछ सुन्दर ही सुन्दर नज़र आता है | New Relationship Energy या NRE का इस बात से कोई सम्बन्ध नहीं, कि आपका रिश्ता शारीरिक भर है, या भावनात्मक, बौद्धिक, सामाजिक आदि भी है | तो आपसे मुझे ये कहना है, कि आपको खालीपन या खोखलापन महसूस होने के पीछे एक कारण ये भी हो सकता है, कि कुछ महीने बीतने के बाद ये NRE आपकी रिलेशनशिप से ख़त्म हो रही हो |
इन सब बातों के बारे में आराम से सोच कर देखें | बिलकुल संभव है कि आपको शायद इस दुविधा के पीछे और कोई वजह भी नज़र आये | जहाँ तक इसके समाधान का सम्बन्ध है, आप जो भी समझेंगी, वो आपको आज या कल, जल्द या देर से, अपने साथी को तो बताना चाहिए, ऐसा मेरी समझ कहती है | उसके बाद उन्हें सोचने का मौका दे कर, उनके विचार जान कर, आप दोनों इस रिश्ते को कैसे, कितना, कब तक आगे बढ़ाना, ये बेहतर तय कर पाएंगे |
उम्मीद है, कुछ समाधान मिला होगा आपको :)
डिस्क्लेमर - मेरी वॉल पर सेक्स और सेक्सुअलिटी के सम्बन्ध में बात इसलिए की जाती है कि पूर्वाग्रहों, कुंठाओं से बाहर आ कर, इस विषय पर संवाद स्थापित किया जा सके, और एक स्वस्थ समाज का विकास किया जा सके | यहाँ किसी की भावनाएं भड़काने, किसी को चोट पहुँचाने, या किसी को क्या करना चाहिए ये बताने का प्रयास हरगिज़ नहीं किया जाता | ऐसे ही, कृपया ये प्रयास मेरे साथ न करें | प्रश्न पूछना चाहें, तो वॉल पर पूछें, या फिर पहले कमेंट में गूगल फॉर्म है, वहां पूछ सकते हैं | इन पोस्ट्स को इनबॉक्स में आने का न्योता न समझें |
©Anupama Garg 2021
गूगल फॉर्म - https://forms.gle/9h6SKgQcuyzq1tQy6
As authentic and as vulnerable I can be in a semi-personal, public space. I am who I am.
Wednesday, 29 December 2021
सेक्सुअल रिश्ते में खोखलापन क्यों ?
क्या भावनात्मक रूप से एक हुए बिना / आत्मिक प्रेम बनाये बिना / बिना इमोशंस के / सेक्स संतुष्टि प्रदान कर सकता है?
#sexuality_notes_by_Anupama
क्या भावनात्मक रूप से एक हुये बिना सेक्स संतुष्टि प्रदान कर सकता है । दूसरे शब्दों में क्या आत्मिक प्रेम स्थापित हुये बिना मात्र शारीरिक स्तर पर किया गया मैथुन मन को तृप्त कर पाता है? यदि शारीरिक स्तर पर किया गया सेक्स और प्रेम में किये गये सेक्स समान रूप से संतुष्टि दायक हैं तो फिर अन्य अनेक लोगों को मैं देखता हूं कि वे किसी के साथ सारीरिक रूप से मैथुन करने के बाद पुनः शीघ्र ही अपनी संतुष्टि किसी अन्य पुरुष या स्त्री में खोजने लगते हैं, ऐसा क्यों है कि शारीरिक क्षुधा शांत होने पर भी मन अतृप्त रहता है ?
जी मैम, मैं इस संदर्भ में बहुत हद तक अनभिज्ञ हूं इसलिए यह प्रश्न अक्सर मेरे सामने आता है । इस संदर्भ में मेरा ग्यान ज्यादातर किताबी ही है, इसलिए प्रश्न में तनिक भ्रम सा दिखाई पड़ सकता है इसलिए क्षमा करें । भैरप्पा बहुत दृढ़ता से सम्भोग और मैथुन (sex) और सम्भोग को अलग अलग परिभाषित करता है | वात्स्यायन भी इसमें अंतर करता है । जबकि अंग्रेजी में इसके लिये कोई अलग शब्द ही नहीं है । उपरवास से सम्भोग की प्रक्रिया तक स्त्री और पुरुष का पहुंचना क्या वस्तुतः मैथुन ही है और अगर ऐसा है तो परिणाम में सामान्यतः अंतर क्यों दिखाई देता है । क्यों एक पुरुष सुखी दामपत्य जीते हुये भी अपनी तृप्ति महसूस नहीं कर पाता और क्यों किसी को एक सामान्य चुम्बन भी तृप्ति का बोध करा देता है ?
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इसका कोई सीधा जवाब नहीं है | सेक्स व्यक्तिगत होता है | कई लोग हैं, जिन्हें बिना बौद्धिक उत्तेजना के बगैर किया सेक्स संतुष्टि नहीं देता | ऐसे लोगों को Sapiosexual कहा जाता है | वहीँ दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें प्रेम में ही उत्तेजना, और प्रेमी के साथ किये सेक्स से ही आनंद की प्राप्ति होती है | ऐसे लोगों को Demisexual कहा जाता है | लेकिन वहीँ Asexual लोग भी हैं, जिन्हें सेक्सुअल उत्तेजना नहीं होती | उन्हें लोगों से प्रेम होता है, वे लोगों से शारीरिक, भावनात्मक सम्बन्ध बना सकते हैं, वे लोगों के गले लग सकते हैं, उन्हें बाहों में भी भर सकते हैं, उन्हें रोमांटिक स्पर्श की इच्छा भी हो सकती है, लेकिन सेक्स या जिसे आप मैथुन या सम्भोग कह रहे हैं, उसकी इच्छा नहीं होती |
ठीक इसी तरह ऐसे लोग भी हैं, जो सेक्स को सिर्फ शारीरिक आवश्यकता की तरह देखते हैं, उसे पूरा भी करते हैं, और उन्हें इसके लिए emotions या commitment या spiritual सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं होती | इसका व्यक्ति के जेंडर से कोई सम्बन्ध नहीं है | महिलाएं या पुरुष कोई भी ऐसा हो सकता है | सेक्स को सिर्फ शारीरिक आवश्यकता की तरह देखने वाले लोग इसे पूरा भी करें, ये कोई ज़रूरी नहीं है | इसका मतलब ये भी नहीं, कि वे अपने सेक्सुअल साथी / साथियों के प्रति सम्मान नहीं रखते | ये भी ज़रूरी नहीं, कि बहुत से लोग ये समझते भी हों कि सेक्स उनके लिए मात्रा एक शारीरिक आवश्यकता है | विशेष तौर पर इसलिए क्योंकि सेक्स के बारे में हमारी समझ अधिकतर कंडीशनिंग, सामाजिक और नैतिक मूल्यों, दंड विधान आदि से विकसित होती है |
कई समाजों में (जैसे हमारे अपने समाज को ही उदाहरण के तौर पर देखें, या जैसे और भी बहुत से साउथ एशियाई देशों में सेक्स को ले कर बहुत कुंठा है), सेक्स की बात करने या, सेक्स की इच्छा दर्शाने पर, या सेक्स कर लेने पर भी, लोगों की सामाजिक, नैतिक प्रताड़ना की जाती है | ऐसे में लोग अक्सर ये दिखाने की कोशिश करते हैं, कि उन्हें अपने साथी से प्रेम भी है | ऐसे समाज में अक्सर, सेक्स की बातें, सेक्स की प्रक्रिया, और सेक्स का अनुभव, सभी बहुत ढोंग और कुंठाओं से भर जाता है |
वहीँ दूसरी ओर, जिन समाजों में सेक्सुअलिटी का सम्यक अध्ययन किया जा रहा है वहां सेक्सुअलिटी के बारे में नए तथ्य सामने आ रहे हैं | जहाँ अपनी सेक्सुअल डिजायर बताने पर पाबन्दी नहीं है, जहाँ सेक्सुअल भिन्नता के लिए दंड का प्रावधान नहीं है, वहां लोग ठीक से और सवालों के साथ, इस सवाल का भी जवाब दे पा रहे हैं | ये एक अलग बात है, कि धीरे धीरे वक़्त बदल रहा है, और जैसे जैसे समाज में लोगों के अनुभव बदलेंगे, वैसे ही धीरे धीरे शायद समाज की सेक्स, संतुष्टि, और आनंद को ले कर अवधारणाएं भी |
मेरे व्यक्तिगत अनुभव में, हमने सदियों से इस बारे में बात ही न कर के इस विषय को बेवजह ज़रुरत से ज़्यादा उलझन भरा बना दिया है | सेक्स अनुभव और संवाद का विषय ज़्यादा है, अध्ययन का कम | इसलिए हमारे प्रश्न यदि इस बात पर ज़्यादा ध्यान दें कि हम स्वयं, और अपने साथी को कैसे आनंद पहुंचा सकते हैं, तो हम पाएंगे कि हमारे सम्बन्ध कहीं बेहतर होंगे, बजाय इसके कि कामसूत्र में कितनी मुद्राएं हैं, या भैरप्पा सम्भोग व मैथुन के लिए अलग अलग term उसे करते हैं या नहीं | वैसे सन्दर्भ में बताती चलूँ, कि अंग्रेज़ी में सेक्स शब्द को बहुत आराम से इस्तेमाल किया जाता है, मैथुन के लिए शब्द 'coitus' है, लेकिन वहां लोगों से ये उम्मीदें नहीं की जातीं कि वे जब तक शुद्ध भाषा में बात न कर सकें, तब तक उनके प्रश्न, उनके उत्तर, या उनके अनुभवजन्य विचार मान्य नहीं होंगे |
खैर विषय से इतर गए बिना, मूल प्रश्न पर लौटते हुए - सेक्स एक व्यक्तिगत अनुभव है, इसलिए कुछ लोगों को भावनात्मक रिश्ते के बिना संतुष्टि नहीं मिलती, कुछ लोगों को मिलती है | हाँ सहमति ज़रूरी है | भारतीय विधि के प्रावधान के अनुसार सहमति देने का विषय अपने आप में काफी विशद है, इसलिए वो किसी और दिन |
डिस्क्लेमर - मेरी वॉल पर सेक्स और सेक्सुअलिटी के सम्बन्ध में बात इसलिए की जाती है कि पूर्वाग्रहों, कुंठाओं से बाहर आ कर, इस विषय पर संवाद स्थापित किया जा सके, और एक स्वस्थ समाज का विकास किया जा सके | यहाँ किसी की भावनाएं भड़काने, किसी को चोट पहुँचाने, या किसी को क्या करना चाहिए ये बताने का प्रयास हरगिज़ नहीं किया जाता | ऐसे ही, कृपया ये प्रयास मेरे साथ न करें | प्रश्न पूछना चाहें, तो वॉल पर पूछें, या फिर पहले कमेंट में गूगल फॉर्म है, वहां पूछ सकते हैं | इन पोस्ट्स को इनबॉक्स में आने का न्योता न समझें |
©Anupama Garg 2021
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Questions about Sexuality
डिस्क्लेमर - मेरी वॉल पर सेक्स और सेक्सुअलिटी के सम्बन्ध में बात इसलिए की जाती है कि पूर्वाग्रहों, कुंठाओं से बाहर आ कर, इस विषय पर संवाद स्थापित किया जा सके, और एक स्वस्थ समाज का विकास किया जा सके | यहाँ किसी की भावनाएं भड़काने, किसी को चोट पहुँचाने, या किसी को क्या करना चाहिए ये बताने का प्रयास हरगिज़ नहीं किया जाता | ऐसे ही, कृपया ये प्रयास मेरे साथ न करें | प्रश्न पूछना चाहें, तो वॉल पर पूछें, या फिर पहले कमेंट में गूगल फॉर्म है, वहां पूछ सकते हैं | इन पोस्ट्स को इनबॉक्स में आने का न्योता न समझें |
Sunday, 14 November 2021
To Kill a Mockingbird - Book Review
Just because I wanted to write this, here comes nothing.
Set in 1930s in Maycomb county, Alabama, a 6-year-old gives you an insight into law, racism, gender dynamics, marriages, rape, religion, mental health, friendships, joy, solidarity, grief, communities, and everything else that you can imagine as a subject for discourse even today.
One of the things that I simply loved about the book is that there is only ONE single character that has been portrayed as entirely evil. And honestly, Atticus, with his usual subjective analysis has been able to identify as a victim-turned-perpetrator.
No other character is black only, or white only. They are all people with both the good and the bad wolves within them. They are a small community of people with areas of life that need a lot of work, and also with areas that are perfect as they are. A community that runs to extinguish an old spinster's house, and rebuild it, and yet a community that shuns away those they call trash.
Another adorable thing about this piece of fiction is the way Atticus addresses every single question his children ask. Sure, Atticus is a very textbook ideal father, but he does have a lot of similarities with my own. No wonder Scout puts him on a pedestal like I did mine for decades.
No wonder it took Scout Finch a long time (all the way in the second book) to see that he is a human with his shortcomings too. No wonder it took me a decade too to know that my own Atticus in my life is a human and has his own limitations too.
Similarly, Calpurnia is a perfect example of a decent person, and Dr. Finch a perfect gentleman despite his quirks and his eccentric habits. However, the sensitivity that Boo Radley demonstrates is something else altogether. How child-like simplicity can reach the heart of a man who has been shunned away, been left alone fot decades! How also, the same simplicity can shock and brings back to senses, a horde of men intent on violence and murder!
And then the book made me think of what Atticus does when it comes to fighting the case for a falsely accused Negro. The willingness to sacrifice his life in trying to save that of Tom Robinson, reminds me of the willingness of Elijah Michaelson to sacrifice his for Niklaus in the series Originals. His fear for the life of his children, the same as Niklaus' for his daughter Hope.
I read the book every single time and I am reminded of the aggression the oppressed face even within their communities. Calpurnia facing the anger of others in the Negro community for instance. For the fact that she is educated, can read, can speak 'proper' English. I love how she responds to that aggression, and how she explains it to Jem and Scout when they ask.
While it may be set in date, I love this book to pieces, and often wonder what would the world like be if it had more of Miss Maudies and Atticus Finches. I wonder what the world would be like if we had more children brought up like Jem Finch and Scout Finch.
I feel this sense of nostalgia with my own childhood, and yet feel bereft of something in there. Something that I only see missing in hindsight, even though that something isn't the highlight of everything that I missed while growing up.
To everyone, who has read the book and loved it, yay to the tribe! To those who read it and didn't love it, or like it, I'll love to hear your thoughts on this piece of text. To all those who haven't read it, you might be missing a really good book. See, if you'd like to read it. To those of you who want their children to read REALLY meaningful stuff, this might be a great pick.
On that note, here's a quote from Atticus Finch that has formed the basis of all my struggle subconsciously, ever since I read it... “This time we aren’t fighting the Yankees, we’re fighting our friends. But remember this, no matter how bitter things get, they’re still our friends and this is still our home.”
Saturday, 23 October 2021
The House of Secrets - A review of my journey within
Trigger Warning - Discussion about mass suicide, collective psychosis, shared psychosis, mental health, and much more. This is going to be a VERY long post.
Last 3 hours were an entire journey in my entire understanding of so many things. I finally saw the House of Secrets. For all my maturity, my sensibility, my experiential acceptance of mental health challenges, I'm shaken. And, terribly so.
I started from a simple curiosity, went to a state where I wanted to throw up what I was eating, then moved into a voyeuristic inability to stop watching, simply because it was so bizzare.
I went into shock and disbelief about what happened. It felt easier to just shut this down, and not watch, and yet there was no sense of closure in not watching it till the end.
I questioned my own beliefs about faith and delusion once more, I was relieved this wasn't about me or anyone I know, or anyone close to me.
I thanked my education from my explorations into sexuality and BDSM, my understanding of consent, my support systems that encourage everyone to speak up, my ability and my sheer luck!
I felt sad about the fact that most people cannot even cry, including the men on the show, that there is no normalization of these conversations, that there is no way to avail much needed mental health facilities, and 50 thousand other social issues.
But most of it, I was apalled and saddened (even though not shocked) by two things. 1. Don't talk about 'this' to anyone (what that 'this' is, varies from people to people). 2. The inability to question anything rationally, which erases that fine line between faith and delusion.
It seemed callous to feel relief that this wasn't anyone I know even remotely. It felt spiritually totally disconnected from everything I have been raised on, everything I have evolved into. It felt like such a solid hit on my energy levels. I am exhausted.
To anyone and everyone reading this, I just want to say this...
Please TALK! About everything and anything under the sun. These conversations are unsettling, they are VERY unnerving, but they might be the only thing standing between life and death for someone.
Anupama Garg 23.10.2021
Saturday, 10 July 2021
Dare not clip my wings
#चेतो_दर्पण_मार्जनम्_अनुपमा - Musings Post 10 - 10.07.2021
Friday, 9 July 2021
July 2021 - Post 9 - प्रेम होगा तो क्या होगा
पहले तो समझ लो कि अधिकतर प्रेम होगा ही नहीं। कुछ देखोगे तुम कुछ लोगों के बीच घटते हुए। उसे प्रेम समझोगे। फिर चाहोगे कि तुम्हारे साथ भी घटित हो वो। जब नहीं घटित होगा तो तुम उसके पीछे पीछे दौड़ोगे। लेकिन वो तो रेस है, वो प्रेम कहाँ है? तुमसे प्रेम करने के लिए तुम्ह पर बंदिशें लगायी जाएँगी, तुम्हें लालच दिया जायेगा, तुम्हें बदलने को कहा जायेगा। तुम सब करोगे। लेकिन ये तो शर्तिया व्यापार है, प्रेम कहाँ है? तुम प्रेम करोगे बिना लाग लपेट के, तो तुम्हें बेवकूफ या झूठा समझा, दिखाया, और महसूस करवाया जायेगा। और क्योंकि तुम प्रेम चाहते हो बदले में, तो तुम उनकी राय खुद पर हावी भी होने दोगे। बदले में तुम्हें जो मिलेगा, वो तो विनिमय है, वो प्रेम कहाँ है? एक बात ज़रूर होगी। तुम, जो कि प्रेम करने और पाने निकले थे, स्वयं से ज़रूर प्रेम करना बंद कर दोगे, कि अब तुम बदल गए होंगे। सो, प्रेम मिला भी नहीं, और तुमने खो जाने भी दिया। ये तो प्रेम नहीं है। तो फिर, जब वाकई प्रेम होगा तब क्या होगा ?
#चेतो_दर्पण_मार्जनम्_अनुपमा - Musings Post 9 - 09.07.2021
Thursday, 8 July 2021
July 2021 - Post 8 - Giving without losing yourself - 2
Continuing with a lot of difficulty from yesterday, the second part of the subject statement was 'without losing yourself'. This one is the tricky part. Like I shared above, I considered boundaries. However, I also considered about the question of - what really is the 'self'? So, when we say we do not want to lose ourselves, what is it that we do not want to lose - The body, the Mind, the Possessions, my personality, the traits in me which I embrace, or those in me which I run away from.
What of the times when I want to give someone something, but I do not like them otherwise? So, I find it equally disturbing to not give to them. Should I at such times, give, or not give? Would I be then losing myself, or not?
What would it mean to lose myself really?
I don't think there is anything like losing yourself really. In truth one is always lost. In the imagination of what is it like to 'give'. But, if one does indeed find oneself, then one cannot give anymore. One doesn't become either. Then one simply is. If you just are, and if the so-called receiver just is, where is the boundary, where is the losing, or the holding back really?
OK, I can't keep up with this thought anymore, so I will revisit it at some point perhaps. Till then thanks for the topic suggestion Elizabeth. It brought about some much needed inwards journey that has triggered a lot of other thoughts. On that note, till the next time.
#चेतो_दर्पण_मार्जनम्_अनुपमा - Musings Post 8 - 08.07.2021
Wednesday, 7 July 2021
July 2021 - Post 7 - Giving without losing yourself - 1
I am avoiding. I am running away. Not just from myself, but from everyone else and everything else as well. I am cranky, I want to eat, drink, be merry, not have a worry in the world. I am torn apart by the knowledge that I know these indulgences aren't really my thing either. They worry me, never because of health reasons, but because the restlessness that got me to talk to Swami Shyama Chaitanya Ji, is now changing shape.
The anger, is now turning to tiredness, and then lack of resolve, and then desparation. Loneliness gnaws me when I try to quietly sit and watch. My watching happens through this journal. The moment I watch deeply enough, I start feeling tired. My body starts fidgeting, and I want to run away. Till yesterday I was calling it intellectual withdrawl. Today, I am calling it the writers' block.
As a result, I went to FB today and asked for writing ideas. While some good ones came up, one stood out. Chaitanya Nagar asked me if writer's block is real or it's just a name for something we don't quite understand? I think a few weeks ago I would be upset that he's trying to analyze me from J Krishnamurti perspective again, as he so often seems to be doing. However, today I didn't feel any resistance. My response was - I think any sort of block is just a name for something we do not understand (for whatever reasons) or do not want to accept. And I didn't have any troubles admitting to myself that I am running away. Maybe in observing this escape I will find the key!
So anyway, I picked up one of the topics that were suggested - Giving without losing yourself. I started writing and got tired again. So here goes part 1:
I had hit writer's block. In the middle of a long process that I am doing. I needed a break and requested for topics and got this one along with a few others.
My initial instinct about this topic was to think of boundaries. You can give without losing yourself if you can establish clear boundaries. However, on second thought, I am wondering. What really is giving? Does one really give? What does the act of giving even mean? Is it about sitting at a higher pedestal and doing charity? Is it about one side of a transaction? Is it about doing something, so that in return you receive something you need or want?
I was reading an article on medium today and it said people do favours to you to lure you into their toxic traps. It said people also ask favours in order to be liked by you. You see the human mind is wired in a way that receiving makes you feel obliged (which means now you must like the person). On the other hand, giving is an act that the brain equates with liking the person that you're giving something to. You like them, and that's why you must be doing them a favour, right?
I was reading something else too. I read a post by @Himanshu Kumar about Ashok Bhai and Lata Ben. I have pasted the link in the first comment for those of you who can read Hindi. What would it take for someone to do so much for others, and get whatever they were offered in return? When I read about Ashok Bhai, Lata Ben, Contractor Didi, Fr. Stan Swamy and the likes, I wonder if they knew they were giving?
Is a giver someone who does it because that's how their core is designed? If they do, then do they crib when they don't get anything in return? Even acknowledgement? Are they taken for granted?
So let me put it this way - I was suggested a topic to write, because I requested for ideas, as a favour. Now instead of actually writing how I feel about it, or what I think about it, I am busy coming up with more questions, some answered, others not.
But one thing that I can clearly see is this - In giving there is contribution, Liz (Elizabeth Merill I am taking the liberty to address you so, please suggest if you would prefer otherwise). No matter what we do, there is contribution happening, there is 'giving' happening, whether we acknowledge it or not. So, the fact that I asked a question on facebook, reflects that I wanted to 'give' myself the chance to benefit from the thoughts of others. It also means that unwittingly some people were given the chance 'by me, by the universe, by coincidence' to contribute to my life in this moment. I 'received this contribution, and I am now 'giving back' this write up.
The key however, is for me to remain humble. To accept that I am not necerssarily 'giving' something. I am sharing, contributing, whatever other phrase. Because in sharing there is pleasure, the joy multiplies, no one is left out, no one is burnt out. So, maybe giving as a verb needs to be replaced by sharing!
#चेतो_दर्पण_मार्जनम्_अनुपमा - Musings Post 7 - 07.07.2021
Tuesday, 6 July 2021
July 2021 - Post 6 - Sickness
Addictions, predilections, temptations, distractions, are all sicknesses. Does this mean I judge myself for caving in yesterday evening to partying? Or the few times before that? Does that make me weak? Does that make me judgeable? No, if at all, it makes me only human, with an awareness that I can change it if I want. That I will need to put in the hard work. The hard work in avoiding my emotions, my experiences, my cravings, my fears, my loneliness, and all that I deem ugly within. The poet in me will want to demonize or romanticize it all. However, if the rational part of my being starts to observe it quietly, patiently, maybe even gently, like one would sooth a child throwing tantrum, then I would know that nothing is ugly within. That no sickness is to be judged, that seeing the sickness itself means that the process to treat it has begun. So, today I am going to see my upset stomach, my headache, and my symptoms. The symptoms of what happens when you do not patiently listen, and plunge into something with hope, without seeing it for what it is - temptation, a mere distraction.
Today, I am going to allow myself to lose out on what I am trying to recover, and just chant - I'll be fine!
#चेतो_दर्पण_मार्जनम्_अनुपमा - Musings Post 6 - 06.07.2021
Monday, 5 July 2021
July 2021 - Post 5 - Simply Documenting
I am chatting with someone who sounds interesting. I have chucked a few out, and am not chatting with any of them any longer. Any old time acquaintances apart from the closest ones, seem to trigger me more than make me aware of what I want or not. Sometimes I wonder if I am desperate for a relationship. Then I also wonder why I want one. Also, if desperation is really wrong. Which takes my thought to whether there is anything really right or wrong? And then I can imagine a person or two frowning at me, talking to me down their noses, because I can't seem to capture what J Krishnamurti says.
I shrug my head and mutter WTF. I am going to chat with this seemingly interesting guy. Let's plan a date, let's discuss some work, let's drink a few cocktails. And before I know, I am deadbeat, drunk, and safely dropped home, triggered at a friend who's staying with me. There are things I cannot say, things I am not allowed to feel, things I do not know how to explain. What does lack of privacy do to me? What does it mean to stay with someone who shared all the space with you, but is neither a bf, nor your brother, and is just a temp flatmate?
There's a lot of anger. There's a lot of frustration, and also either victim mode or else perpetrator mode active. Lots of old-time wounds are also resurfacing. Sometimes I wonder if that's because of how the next few years might reflect for me numerologically? Next I feel it doesn't matter.
For now, running away from my emotions and frustrations on working for a seemingly inefficient client, as it may be, I will go and meet this guy in the evening. And let's see what unfolds.
#चेतो_दर्पण_मार्जनम्_अनुपमा - Musings Post 5 - 05.07.2021
Sunday, 4 July 2021
July 2021 - Post 4 - Why do I write?
Last two days I was trying to write for catharsis and I realized all I was doing was babble away! It sounded like random ramblings with no head or tail, despite having themes, so I decided that I will try to journal about themes that are relatively more specific, or themes that are resurfacing for me time and again. There are a few things I have resolved for myself, but there are many others which are pending resolution, and so they keep coming up.
Interestingly it is obvious that I am trying to avoid facing issues that come up, emotions that well up, the fear that scares me, the anger that gnaws at me. In the process of this avoidance, I go out, I party, I consume substances, I binge food, I indulge in movies, or I binge-watch netflix. The truth? I seem to be not doing the only things that I MUST do to be able to face all this - sing, read, introspect, write, fulfill the ritual.
I sit and daydream these days. It feels nice. It scares me, sure. It makes me wonder why I want to do anything that I claim to want to do. If there is really anything that I want to do.
I get triggered at everything in others that I despise in myself. Then I sit and wonder why should I despise these things, whether in others or in me. I surprisingly do not get triggered at things that I was earlier getting triggered by. Then I sit and I wonder again if the triggers have changed or if I have.
I also wonder what or who really is this I? I am tired already, but I am not going to stop. I will keep thinking and documenting this journey for whatever this journey is.
#चेतो_दर्पण_मार्जनम्_अनुपमा - Musings Post 4- 04.07.2021
Saturday, 3 July 2021
July 2021 - Post 3 - The Price of Freedom
अगर तुम आज़ादी चुनोगी तो शायद अकेली रह जाओगी
तुम्हें इक्का दुक्का लोग समझ पाएंगे
तुम अपनी बात समझने के लिए शायद छटपटाओगी
लोग तुम्हारा अपमान करेंगे
तुम क्षोभ में उन्हें दूर करोगी, या खुद दूर हो जाओगी
व्यवस्था, समाज, हज़ार प्रकार के ढाँचे तुम्हारे साथ अन्याय करेंगे
तुम बेड़ियों में छटपटाओगी
और अगर बेड़ियाँ तोड़ेगी तो असुंदर कहलाओगी
किस्म किस्म के लेबल जब तुम खुद पर से उतार कर
अपनी आज़ादी पर खुद की मिल्कियत जमाओगी
तब अकेलेपन से तुम आज़ादी की कीमत चुकाओगी
लेकिन याद रखना
चाहे कितना भी अकेला महसूस करो, अकेली होगी नहीं तुम
जेल तोड़ कर, सजा काट कर आज़ाद हुयी
कुछ गिनी-चुनी औरतों की बहन बन जाओगी
और एक दिन इस बहनापे के लेबल से भी मुक्त हो कर
हर मज़लूम के साथ तुम्हारी आवाज़ खड़ी होगी
उस दिन आखिरकार तुम खुल के मुस्कुराओगी
देह मिटटी हो जाएगी तुम्हारी,
रूह आसमान
और तुम उस दिन, पूरी कायनात की हो जाओगी |
#चेतो_दर्पण_मार्जनम्_अनुपमा - Musings Post 3- 03.07.2021
Friday, 2 July 2021
July 2021 - Post 2 - Early Childhood
A few things that stand out for me from my childhood - Being a child prodigy (no I did not mean the meaning of the word prodigy back then). I remember feeling awkward, I vaguely remember that I hated being touched by anyone except immediate family, my grandmothers, and an older aunt of mine. In retrospect I remember that I was conditioned and trained to not be touched, or hugged, or shown physical gestures of affection by anyone. It took me decades, to become the cuddlebear I am today. Is that good, is that bad, is that energetically safe, I do not know. But I do know that my parents did their best to protect me in a big, bad world where little girls gets molested, children get abused, and so much more.
I am not sure why this aspect of my early childhoood comes to my mind so prominently at this moment, but I have promised that I will try to write for catharsis and to make sense of my own life. I promised someone that I will at least ATTEMPT to write about my journey and my experiences and my explorations, and put it out there if I feel like it; in the hope that someone else might find some value in it. Not from the point of view of validating my thoughts, but from the value of them not feeling alone or lonely in whatever their journey is.
My childhood was loaded to say the least. It was lonely in a very not-so-sad way. It was very evolved in one way, and extremely ignorant and naive in another. However, one thing it most certainly was - It was protected, nurtured, supported. It was spent with parents trying to do their best, and providing us with the best options for our growth and accomplishments. Sometimes I wonder if my brothers feel the same way, sometimes I am sure that they do, and then I remind myself that my job is not to look into the minds of others, but in my own mind.
On a side note I think, if I could discover myself fully, then would I not be able to discover others too as well? In that case, isn't all existence one? But that's food for meditation another day. As it is, last few months, the minds has been super distracted, more than every before. It makes me wonder. Do all minds work so much? Do all people feel the need to think so much, feel so much, analyze so much? Do people pretend to be dumb? Do people take a sort of snobbish pride in being dumb when some of them try to put me down for how my mind works? Is there really something like a normal mind, or a sane mind really?
OK back to track. So, childhood. My childhood was one more thing - full of contradictions, and as a result of my inability to harmonize them, it was also full of conflict, some of it inter-generational in nature. My anger at the unfairness in the world. All my childhood and teenage, and now my adult life, there were a few things I could never bear - unfairness, unjustified (in my opinion) authority, and bullying. For the longest time, I didn't even know my reasons behind them, over decades I have discovered some. Over decades I have also discovered some about how they affect me personally or shape my life. However, over years I have also somehow felt very tired of the process of discovery.
This moment for instance. I have been writing for 15 minutes straight and I am not editing anything. I am not deleting anything that I am writing, I am not changing anything except probably a spelling here or a spelling there. However, when I try to dig deeper into my childhood, my mind tries to create a defence mechanism. It blocks my memories, it makes my physically jittery. It's OK I tell myself, but I feel impatient to write when I think like that. I feel my right foot twitching and I can almost heart a frustrated groan. If feet could speak, eh?
When I try to do exercises like these, specially by myself, when someone else isn't holding the space, it is very difficult, I can sense my body, and my energy differently. I can feel myself and this world and everything around me differently. Is that meditation? I do not know.
Something wierd is happening here. I am usually good at writing in structure, in bullet points, in an organized form. Damn it, I coach people into that skill. Yet, I try to write these musings and despite taking up topics, I ramble everywhere. But so be it, in the hope of the fact that I might perhaps be able to figure out something in this whole chaotic existence.
#चेतो_दर्पण_मार्जनम्_अनुपमा - Musings Post 2- 02.07.2021
Thursday, 1 July 2021
July 2021 - Post 1 - Let's Begin
Monday, 28 June 2021
महिला पुरुष पार्टनरशिप - 1
अगली कुछ पोस्ट्स सीरीज़ में आएँगी | ये विशेष तौर पर पुरुषों के लिए है | आपसे दो निवेदन हैं -
1. सिर्फ पढ़ें | रिएक्ट करने कुछ दिन बाद आयें | मेरा यकीन मानिये बहुत सम्भावना है कि आपका आज का रिएक्शन और चार दिन बाद का रिएक्शन बहुत अलग अलग हो |
2. ध्यान रखें कि ये पोस्ट आपको किसी भी चीज़ के लिए कन्विंस करने के उद्देश्य से नहीं लिखी गयी है | आप इस में लिखी किसी भी बात से सहमति रखें या नहीं आप इसके लिए स्वतंत्र हैं | लेकिन बदले में ये भी ध्यान रखें कि महिलाओं को कन्विंस करने की कोशिश मेरी वाल पर न करें | मेरे यहाँ ईमानदारी और खुद के जिए हुए यथार्थ के अलावा बात करने वाली सवारी अपने सामान की खुद ज़िम्मेदार होती है !
मुझे ये कहना है कि मैं बहुत थक गयी हूँ | हम में से अधिकतर बहुत थक गयी हैं | हम इस बात से थकी हुयी हैं, कि जब हम आप लोगों को 'न' कहती हैं,तो आपको लगता है ये आपका मौका है हमसे मोल-भाव, निगोशिएट करने का | हम कहती हैं, हमें hookup नहीं करना, आप ' न' का सम्मान नहीं करते बल्कि हमें convince करने लगते हैं कि hookup में कुछ बुरा नहीं | अब इसे देखिये एक बार - hookup में कुछ बुरा नहीं, ठीक है | लेकिन एक आप ये मान लेते हैं कि हमें ये पता नहीं | दूसरा आप ये मान लेते हैं, कि हमें जो पता नहीं, वो बताने की, वो सिखाने की ज़िम्मेदारी आपकी है | तीसरा आप ये मान लेते हैं कि अगर हमें ये पता है तो हमें इसे स्वीकार कर के इसपे एक्शन लेना चाहिए | इन तीनों धारणाओं को बनाते समय, आप हमसे नहीं पूछते कुछ भी | ऐसे में ये धारणाएँ काल्पनिक हो जाती हैं, वास्तविक नहीं | अब इसमें ये भी जोड़ लीजिये कि औरतों को अमूमन रेप से, एसिड अटैक से, स्टॉकिंग से, दबाव से, भी जूझना पड़ता है | ऐसे में, आपकी ये काल्पनिक धारणाएँ हमारी लड़ाई में हमें आज़ादी नहीं देतीं बल्कि हमारी लड़ाइयाँ बढ़ा देती हैं | हमारे लिए एक और मोर्चा खुल जाता है जूझने के लिए | हम थकती हैं ये सोच के कि सिर्फ इसलिए कि आप को हमने दोस्त माना, या कि हम सोशल मीडिया पे हैं, या कि हम आपसे ऑफिस में, कॉलेज में, किसी पार्टी पे मिलीं, आप को लगता है कि आपकी हमारे बारे में धारणाएं सच हैं | हम थकती हैं, अपनी एजेंसी हासिल करने के लिए, जो अपने अपनी धारणाओं के चलते हमसे छीन ली | हम थकती हैं ये सोच के कि हम आप पर भरोसा नहीं कर सकतीं |
मुझे ये मालूम है कि आप लोगों की ज़िन्दगी में भी बहुत दबाव हैं | मेरे लिए ये बातें ज़्यादा दबाव, कम दबाव के बारे में नहीं हैं | लेकिन हम पीढ़ियों से थकती आ रही हैं | और मैं इन पोस्ट्स में आपसे सिर्फ तीन चीज़ें पूछना चाहती हूँ -
1. क्या आप पोस्ट से सहमति या असहमति जताये बिना, हम औरतों के लिए ये स्पेस बना सकते हैं, कि हमें आपसे बार बार नहीं कहने की ज़रुरत न पड़े | एक बार काफी हो?
2. क्या आप बिलकुल भी ग्लानि या गुस्सा महसूस किये बिना, अपने खुद के, अपने परिवार के और पुरुषों के, अपने मित्रों के व्यवहार में ऐसी हरकतों को नोटिस करने (और अगर आपकी हिम्मत हो तो उन्हें call out ) करने की कोशिश कर सकते हैं?
3. क्या आप ये कोशिश कर सकते हैं कि आप हमें ये बता कर कि ब्लॉक कर दो, इग्नोर कर दो, हमारी सुरक्षा का ज़िम्मा भी हम ही पर डाल कर हमारी थकन और न बढ़ाएं?
क्या आप हमारी पीढ़ियों की थकान कम करने में हमारे पार्टनर्स बन सकते हैं ?
- Anupama Garg 28.06.2021
Thursday, 24 June 2021
A thousand shades of Fatherhood
So, Father's day just went by, and here is a sort of an introduction from another of my books which is in pipeline. Hope you enjoy it!
© Anupama 2021 (24.06.2021)
Thursday, 10 June 2021
A leaf from my experiments journal...
I was a part of online communities for long before I first became a member of a community offline. This community was connected to each other because of their sexual preferences, and it was a new thing to me. A new concept. Some of them were queer, others in open relationships, and there were others who experienced with pain and pleasure. That said, I was intrigued, as always - by the concepts. More importantly by the importance of consent.
Wednesday, 9 June 2021
From Kavi/yitri-priya to privileged poet/esses
Saturday, 1 May 2021
A Tale of Humility, Humanity, Hope, and Hugs
She walked on, trudged on, in the dark tunnel. All she had was a voice that called out to her... Her doctor's voice over the phone. Tired, exhausted, but reassuring. In that moment, she was humbled. This man who had a family of his own, hadn't seen them in weeks, because he wanted to ensure that he didn't carry the Pandemic home. This man had lost more patients in the last one year, than in his entire career of more than 3 decades. This man felt helpless as the system failed him. Yet, he found it in him, to reassure her, to advice her, to support her through the sickness of her family. She was humbled!
Oxygen cylinders were available. She called up the person she was supporting through the helpline where she was volunteering. "Didi, please share the oxygen lead to someone else, our patient is no more." Beep.... The line went dead. And with it, another bit of her humanity.
She was numb. But there was still hope. There was the vaccine, there was the possibility of all people above 18 getting it. There were lessons people might learn, intelligent questions people might ask, responsibilities people might take. There was still hope. As bleak, as threadbare, as fragile as it was... There was still hope.
She called them. She was finally going home. After days. Rather weeks. She had been stuck away from them. Not in a hospital, not in a quarantine centre, but in a distant location. She had spoken to them every day, seen them on a video call at least twice a week, but she longed for the touch. She longed for the hugs. She reached home. They hugged. There it was. Her anchor to her humanity. Finally.
She felt human again. She lived again. She loved again. She hoped again. She prayed. Once Again.
Friday, 9 April 2021
कोविड में प्रेम
© Anupama 2021
Thursday, 18 March 2021
मैं किसान हूँ
© Anupama 2021