Wednesday 19 October 2022

लेकिन नौकरी नहीं मिलती इतने इंटरव्यू के बाद भी।

 

लेकिन नौकरी नहीं मिलती इतने इंटरव्यू के बाद भी। - पूछते हैं तो सीखते हैं !

- हम अक्सर सोचते हैं कि हमने सब बढ़िया किया। लेकिन फिर भी नौकरी नहीं मिली। या फिर ये सोचने में डूब जाते हैं कि क्या गलत किया। लेकिन हम पूछते नहीं हैं interviewer से कभी कि हमने क्या गलत किया। अगर पूछते हैं, तो हम ये analyse नहीं करते कि उन्होंने feedback वाकई ईमानदारी से दिया, या हमें खुश रखने भर को।
सामान्यतः हमें feedback माँगना सिखाया भी नहीं जाता। एक चीज़ जो मैंने खूब कोशिश से सीखी, वो ये थी कि आप हर इंटरव्यू में पूछ सकते हैं - "Ma'am आपका जो भी decision होगा, वो होगा; लेकिन अगर आप मुझे कोई फीडबैक दे सकें तो please दें। "
कई बार ये सवाल आपके इंटरव्यू का result भी बदल देता है। कई बार पूछने के बाद भी जेन्युइन फीडबैक नहीं मिलेगा। कई बार आप एक mentor हासिल कर के लौटेंगे। लेकिन 100 में से 50 बार फीडबैक मिलेगा।
पूछते हैं तो सीखते हैं !
 

इंटरव्यू देने का मतलब क्या है?

 


ये पोस्ट मुख्यतः प्राइवेट नौकरी के सन्दर्भ में है। इसलिए government interview से सम्बंधित डिबेट न करें। इंटरव्यू का मतलब है - एक दुसरे को देखना (इंटर + व्यू) यानि, एक दूसरे को जानना, समझना, परखना। हालंकि शाब्दिक अनुवाद साक्षात्कार है, लेकिन इंटरव्यू महज़ एक भेंट, या मुलाकात नहीं है। ये सच है कि इंटरव्यू करने वाले के हाथ में शक्ति है, आपको नौकरी पर रखने या न रखने की। लेकिन आपको भी उतनी ही आज़ादी है (सामान्यतः), अपना चुनाव करने की। इसलिए इंटरव्यू में दयनीय मानसिकता ले कर न जाएं। 
 
#interviews_with_Anupama - 1

Friday 24 June 2022

Gratitude Journal 4 - Communities - FB

 कई बार मुझसे लोग पूछते हैं, फेसबुक पे इतना क्यों ? क्योंकि किस्मत अच्छी है मेरी। क्योंकि जिस दिन मैं उदास होती हूँ, मैं बिना किसी प्रेशर के ये कह सकती हूँ कि मैं उदास हूँ। कम्युनिटीज का काम एक दूसरे की टाँग खींचना नहीं, एक दूसरे को आगे बढ़ाना होता है। जिस दिन मुझे Vitamin Love का एक्स्ट्रा डोज़ चाहिए होता है, मेरी community मुझे ये नहीं कहती कि तुम उदास मत हो,तुम कमज़ोर मत पड़ो। उस दिन आप लोग कहते हैं, ये लो प्यार! जिस दिन मैं लिखने से जूझते जूझते अटक ideas मांगती हूँ, आप मेरे साथ खड़े होते हैं। जिस दिन मैं भड़की हुई होती हूँ, आप मुझे 'शांत गदाधारी भीम' ही नहीं कहते, कभी कभी मेरे साथ नालायक लोगों को कूच भी देते हैं।

आप लोगों को ये भरोसा भी है कि मैं हरसंभव मदद करूंगी, और आप लोग बेखटके कह भी देते हैं। ये भरोसा, ये आत्मीयता एक बार और पहले कमाई थी, और फिर वो दुनिया छूट गयी थी, लेकिन वहां के लोग आज भी हैं, वो रिश्ते आज भी हैं। ऐसे ही ये दुनिया भी है। मेरे लिए इसी दुनिया में multiverse है। सच है कि यहाँ नौटंकी भी खूब होती है, लेकिन उस नौटंकी पर फोकस करने की न फुरसत है न नीयत। आप में से कई लोग मेरे साथ फेसबुक के बाहर भी शिद्दत से खड़े होते हैं, जितने कि इस ecosystem में। मेरा परिवार भी आपके स्नेह की ऊष्मा,उतनी ही महसूस करता है, जितना कि मैं। इतना बहुत है चलते रहने के लिए, न थकने के लिए, थक कर बैठने के लिए, गिर कर फिर उठने के लिए।

#शुक्राने_की_डायरी_से -5 ©Anupama Garg 2022




Sunday 19 June 2022

Father's Day पर

मेरे पिता के साथ के मेरे अनुभवों को सेलिब्रेट करने के लिए । सब पिता ऐसे नहीं होते। मेरे पिता मनुष्य हैं, उनकी अपनी सीमिततायें भी हैं। लेकिन मुझे अपने जीवन में क्या देखना है, किस पर फोकस करना है, ये मेरा चुनाव है। :)

एक पिता में कई पिता होते हैं। एक आदमी जिसकी वाकई इच्छा होती है, पिता बनने की, भरसक अच्छा पिता बनने की, वो अपनी पहली औलाद के होने पर लड़की होने के बावजूद बहुत खुशियां मनाता हैं। एक misinformed पिता अपनी लड़की को डॉक्टर से ले कर डॉक्टर तक भागता है। लेकिन जब तक ये misinformation जाती है तब तक इस पिता को दूसरा बच्चा हो जाता है।

अब ये समझदार पिता, अपने इंटेलिजेंट बच्चों की एनर्जी ठीक से channelize कर पाने के लिए उन दोनों को बराबरी से अच्छे स्कूल में पढ़ाता है, उनको अपने समझ से बेहतरीन जीवन मूल्य देता है, उनको अपनी संपत्ति नहीं समझता, उनको किसी और के चरणों में, गोद में सौंप नहीं देता। उनको बेहतरीन जीवन, भोजन, स्वास्थ्य आदि देता है।

लेकिन हर मनुष्य की तरह इस पिता के, इस पुरुष के ब्लाइंड स्पॉट्स हैं। इसलिए ये इन बच्चों की मां से बेहद प्यार करने के बावजूद अपना आपा खोता है, इसकी patriarchal बुनियाद अभी इसे नहीं पता है।

इसने चाइल्ड साइकोलॉजी तो पढ़ी है, लेकिन अभी feminism iski duniya mein पहुंचा नहीं है। इसमें किसी का कोई दोष भी नहीं है। ये अलग दुनिया का पिता है। लेकिन ये बहुत पक्की बात है कि अगर इसके दरवाज़े तक feminism जल्द पहुँच जाता तो ये उसे भी स्वीकार लेता।

इस सीमित संसाधनों वाले समझदार पिता के एक लड़का और होता है। एक कमरे के मकान में ये 3 बच्चों को, और अपनी पत्नी को ले कर रह रहा है। इसकी प्रायोरिटी दूर के रिश्ते नाते नहीं हैं। ये असंवेदनशील नहीं है, लेकिन इसने अपनी पहली दुनियावी प्रायोरिटी अपने बच्चे, दूसरी अपनी नौकरी, तीसरी अपनी पत्नी, और चौथी अपने बहुत ही रिश्तेदार जिनसे ये 'प्रेम' करता है, वो रखी है। एक नज़दीकी रिश्तेदार को गोद दे दो, अलग अलग स्कूल में पढ़ा लो, हिंदी medium में पढ़ा लो, आदि ये सब राय इस पिता को नहीं समझ आती।

अब ये पिता तीनों बच्चों से बराबर प्रेम करता है। तीनों के स्वास्थ्य, भोजन, पोषण, शिक्षा, hobbies, extracurricular activities में बराबर invested है। ये पिता अपनी समझ भर जो कर सकता है वो करता है। त्याग, प्रेम, दया, माया, ममता की मूर्त्ति साबित नहीं करने बैठी मैं इस पिता को। वो इसलिए कि अब पिता के बच्चे बड़े हो रहे हैं।

अब घर भी थोड़ा बड़ा है, बच्चे पढ़ लिख रहे / गए हैं, कमा रहे हैं, कम-ज़्यादा जो भी, जैसा भी। लेकिन पिता वट वृक्ष जैसा लगता है, और बच्चे अपनी ज़मीन ढूंढने के चक्कर में उससे लड़ रहे हैं अपने अपने तरीकों से।

मेन्टल हेल्थ पिता के घर का दरवाज़ा खटखटाती है। पिता समझदार तो है, लेकिन उसकी दुनिया का दायरा सीमित है। वो ये समझता है, नयी चीज़ों को समझ लेने की कोशिश भी कर रहा है, लेकिन पिता कभी कभी सिर्फ चुपचाप खड़ा देख रहा है, क्योंकि उसे नहीं पता कि वो क्या करे।

पिता अब थक भी रहा है। पिता कभी कभी दुश्मन लगता है। सब लोग घायल हैं, सब लोग आपस में बहुत लड़ रहे हैं। टिपिकल सर्कल है। लड़ने का, गिल्ट में जाने का, मन मसोसने का, सपने टूटने का, थकन का। पिता के भी, बच्चों के भी, और बच्चों की माँ की।

कई सालों बाद एक के बाद एक पिता के बच्चों पर कई मुसीबतें आती हैं। लोगों के बहुत नकाब उतरते हैं। जुझारू पिता, और उसकी जुझारू पत्नी धीरे धीरे देख पाते हैं कि काम उन्होंने ठीक ही किया था। दुश्मन समझने वाले बच्चे, अचानक ही बड़े हो गए हैं। जीवन मूल्य जो सिखाये गए थे, अब फाइनली जीवन जीने के काम आ रहे हैं।

पिता दोस्त हो गया है। पिता प्रेम, समाज, सेक्सुअलिटी, धर्म, पॉलिटिक्स, इकोनॉमिक्स, पर रोज़ कुछ नया सीख रहा है। पिता आश्चर्यचकित है। पिता कभी कभी अपने को पीछे छूटा महसूस करता है। लेकिन पिता अब दोस्त है, दोस्त आगे पीछे नहीं छूटते हैं।

पिता रिटायर हुआ है, और बीमार पड़ जाता है। जुझारू माँ के भी कदम थोड़े लड़खड़ाते हैं। पिता अब बच्चा है। तबियत के लिए डाँट भी मिलती है उसे कभी कभी। जो बच्चे पहले दोस्त बन गए थे, अब कभी कभी अभिभावक बन जाते हैं। पिता कभी कभी खीजता है। पिता की उम्र हो रही है ऐसा उसे लगता है। बच्चे कहते हैं आपकी उम्र में लोग न जाने क्या क्या करते हैं।

पिता चिंता करता है तो बच्चे मुस्कुरा देते हैं। ये अलग से बच्चे जो पिता ने पाले हैं, उनकी दुनिया, खुद वो बच्चे उसे कभी कभी समझ नहीं आते। आश्चर्य और प्रशंसा से भरा पिता अब आधा feminist हो गया है। पिता कॉल आउट किया जाता है। कभी सीखता है, कभी ज़िद करता है, कभी 'let's agree to disagree' पर समझौता कर लेता है। पिता सीख रहा है। पिता संतुष्ट है। पिता परिवार के लिए खुश है।

पिता से सिर्फ ये कहना है - आप ने हमेशा यही सिखाया कि आप मनुष्य हैं। आपको टोकने का, आपसे लड़ने का हक़ है - ये खुशकिस्मती है। आप हैं, और आप का प्यार है - ये lottery है।

जो काम हम बच्चों के साथ 3० बरस किया, अब वो खुद के साथ कीजिये। आपका काम हमारे (शायद ही) होने वाले बच्चों के लिए चिंता करना नहीं है। आपका काम अपनी तबियत, अपने शौक, अपने शरीर, अपनी पत्नी का ध्यान रखना है। और इस बात का मतलब ये नहीं है कि जब हम कहीं अटकेंगे तो आपके पास नहीं आएंगे।

आप की सलाह की ज़रूरत कम पड़ेगी, क्योंकि आपने हमें पालते समय ये चाहा था। लेकिन आपके प्यार की ज़रूरत हमेशा होगी। इसलिए स्वस्थ रहिये, चिंतामुक्त रहिये। संतुष्ट हैं, अब खुश भी रहिये, खुद के लिए भी। आप बने रहिये। <3 <3

3 कहानियाँ और हैं - माँ की, माँ के भीतर के पिता की, और पिता के भीतर की माँ की। कभी और, जब मन कर जाये :)

©Anupama Garg 2022

Friday 10 June 2022

आपको सेक्स और यौनिकता के बारे में बात करने की ज़रूरत क्यों है?

 बड़े प्रश्न आते हैं - आपको सेक्स और यौनिकता के बारे में बात करने की ज़रूरत क्यों है? आपने एक 'कामशाला' खोली है। आप लोगों को खराब कर रही हैं। आप इस दुनिया को बदलने की कोशिश कर रही हैं। यह अनैतिक है। हमारी गरिमा, गौरव और संस्कृति के बारे में क्या? तो अगली चंद पोस्टों में, इन प्रश्नों के बारे में एक-एक करके उत्तर देने की कोशिश करूंगी -

मुझे सेक्स और यौनिकता के बारे में बात करने की कोई ज़रूरत नहीं है।  वैसे तो मेरा पेट भरा है तो मुझे दुनिया की भुखमरी के बारे में बात करने की भी ज़रूरत नहीं है। किसी राजा राम मोहन राय को कोई ज़रूरत नहीं थी कि सती प्रथा में जलती औरतों के बारे में बात की जाये।  किसी गांधी को, किसी मंडेला को कोई ज़रूरत नहीं थी, कि गुलामी, नस्लभेद के बारे में बात करें।  किसी भी बारे में बात करने की ज़रूरत ही ?

 लेकिन क्या है कि नीमबेहोशी में मुझसे जिया नहीं जाता।  अब ज़िंदा इंसान से कहिये बात मत कर, तो ये संभव नहीं।  उससे कहिये मेरे हिसाब से बात कर, ये उससे होगा नहीं।  

वैसे एक और ऑप्शन था मेरे पास - मैं रोटी, कपडा, मकान, सास - बहू, ससुर-दामाद, दहेज़-शादी, भूख, धर्म, राजनीति की बात करती।  
धर्म कोई सा भी हो, उस में औरत की कोई खास जगह दिखती नहीं मुझे सिवाय एक टूल के।  और नर्क का द्वार उसे होना ही है, शुद्ध पवित्र रहे तो भी, और न रहे तो भी।  तो क्यों ध्यान देते हैं हमारी बातों पर, एक कान से सुनिए, दूसरे से निकालिये, और क्या! और रहा बाकि विषयों का, तो उनके लिए इतने सारे व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी के चैंपियन हैं तो।  मेरी ज़रूरत कहाँ है ? 

अगर आपको वाकई लगता है कि सेक्स, यौनिकता, सम्बन्ध, रिश्तों के मुद्दे ज़रूरी नहीं हैं, तो क्यों आना इधर, क्यों सुनना ? अरे जिस गाँव जाना नहीं, उसका रास्ता भी क्यों पूछना ? 

तो मुझे छोड़िये अपने हाल पे।  लिखने दीजिये, बोलने दीजिये, पढ़ने दीजिये।  अगर बात काम की नहीं होगी तो लोग वैसे ही नहीं सुनेंगे।  और बात काम की लगे तो आप भी सुन लीजिये।  सिंपल तो है इतना :)

डिस्क्लेमर - मेरी वॉल पर सेक्स और सेक्सुअलिटी के सम्बन्ध में बात इसलिए की जाती है कि पूर्वाग्रहों, कुंठाओं से बाहर आ कर, इस विषय पर संवाद स्थापित किया जा सके, और एक स्वस्थ समाज का विकास किया जा सके | यहाँ किसी की भावनाएं भड़काने, किसी को चोट पहुँचाने, या किसी को क्या करना चाहिए ये बताने का प्रयास हरगिज़ नहीं किया जाता | ऐसे ही, कृपया ये प्रयास मेरे साथ न करें | प्रश्न पूछना चाहें, तो गूगल फॉर्म में पूछ सकते हैं | इन पोस्ट्स को इनबॉक्स में आने का न्योता न समझें | Google Form Link - https://forms.gle/9h6SKgQcuyzq1tQy6

©Anupama Garg 2022



Friday 3 June 2022

आखिर करती क्या हो ?

 कभी कभी दोस्त लोग बहुत गुस्सा हो जाते हैं।  समय ही नहीं है तुम्हारे पास? यार इतना भी क्या काम करना कि तुम्हें लोगों के लिए फुर्सत ही नहीं ? यार सोशल मीडिया और ऑनलाइन कम्युनिटी के लिए समय है, लेकिन हमारे लिए नहीं है? तो आज लगा कुछ बताऊँ कि ज़िन्दगी में क्या चल रहा है, क्या चलता आया है।  

मेरे बचपन भर मैं बहुत अकेली थी।  इंटेलीजेंट थी, अपने वक़्त, अपने सामाजिक परिवेश, अपने आसपास के लोगों, खास तौर पर बच्चों से बहुत ही आगे। मेरे पापा आम तौर पर बहुत प्रोटेक्टिव लेकिन बहुत आज़ाद ख्याल रहे।  उनके वैचारिक मतभेद भी बहुत रहे रिश्तेदारों से, समाज आदि से।  माँ सिंपल, समझदार, मुश्किल में लड़ जाने वाली, लेकिन वक़्त से आगे वाली महिला नहीं, हैं। मैं दोनों का एक अजीब सा घाल मेल थी।  

नतीजा? मैं शर्मा जी की (गर्ग साहब की) वो लड़की थी, जो पढ़ती भी थी, गाती भी थी, लिखती, बोलती भी थी, समझदार भी थी।  बस नकचढ़ी, गुस्सैल थी, गिट्टी (छोटे कद वाली) थी, चश्मुच और autoimmune के दाग वाली थी।  तो माँ बाप लोग लहालोट हुए जाते, आस पास के बच्चे जल भुन जाते।  मुझे घर में रहने की आदत थी, तो लेफ्ट आउट ज़रूर महसूस होता, लेकिन आदत पड़ गयी थी।  

भाइयों को गली मोहल्ले, स्कूल, कॉलेज में दोस्तों के साथ घूमते , खेलते, देखती तो जलती भी थी।  लेकिन सिर्फ़ जल के क्या हो जाता ? घर वाले जाने भी देते तो जाती कहाँ? किसके साथ ?

स्कूल में खुद को पढाई में डुबा कर रखा, और एक पॉइंट के बाद काम में।  लेकिन बॉसेस और सहकर्मियों का भी वही हाल रहा बहुत अरसे तक। कभी कभी बॉसेस खुद भी कुढ़ जाते, क्योंकि authority के साथ हमेशा conflict में रही।  

दिल्ली आने के बाद दोस्त बने तो या तो बहुत बड़े, या बहुत छोटे।  बराबर वालों से बहुत नहीं पटी कभी, अब भी कम ही पटती है।   और फिर भाई के एक्सीडेंट, और पापा के हार्ट अटैक के बाद कई रिश्तेदारों का तांडव नृत्य खूब देखा।  उसका नतीजा है कि सामाजिक रिश्ते नातों के पुराने फ़्रेमवर्क्स से बहुत कोशिश करने के बाद भी मोह भंग हो ही गया।

लेकिन दोस्ती, जिसकी बचपन भर भरपूर कमी खलती थी, वो आँचल भर भर के एकदम से मिली।  न जाने कौन कौन लोग साथ आ कर खड़े हो गए।  दोस्ती का एक रिश्ता पहली बार ठीक से ज़रूर समझ आया।

कहते हैं, इंसान को जो मिलता है वही देता है।  जैसे लोगों ने मुझे बाहों में भर के मुझ पर प्यार लुटाया, वैसे ही मेरा भी मन किया, कि जो दे सकती हूँ वो दूँ।  जिनके पास पैसे थे, घर था, परिवार थे, प्यार था, experience  था, उन्होंने मुझे वो दिया।  मेरे पास समय था, ऊर्जा थी, मन था, कुछ skills थीं, और मेरी भावनात्मक ईमानदारी थी, तो मैं वो देती हूँ।  

अजनबियों से पाया था, अजनबियों पर लुटाने में झिझक भी नहीं होती।  जो मेरा है नहीं, उसे लुटाने का ग़म कैसा?

लेकिन ज़िन्दगी की एक सच्चाई भी तो है।  खाने को दो रोटी, रहने को छत, पहनने को सस्ता लेकिन साबुत कपड़ा तो चाहिए न ? ऐसे में काम भी करना होगा।  इन दिनों रूटीन कुछ ऐसा दिखता है :

1. रोज़ सुबह सुनीता आंटी साढ़े सात बजे आती हैं।  उनके साथ ही नौ बजे मैं काम शुरू कर देती हूँ । हफ्ते में तीन दिन ऑफिस से, हफ्ते में दो दिन घर से।
2. शाम छः से दस बजे तक, हफ्ते में तीन दिन मैं अंग्रेजी पढ़ाती हूँ।  
3. हफ़्ते में दो दिन सुबह अंग्रेज़ी पढ़ाती हूँ।  
4. रात को टेलीग्राम पर पढ़ाती हूँ।  
5. शुक्रवार को रात 10 बजे sexuality पर लाइव करती हूँ।  
6. पढ़ाने के लिए पढ़ती हूँ।  
7. ऑफिस के काम के लिए पढ़ती हूँ।  
8. घर वालों से बात करती हूँ।  उनकी तबियत, उनके ठीक रहने के लिए जो कर सकती हूँ, करती हूँ।  
9. दोस्तों को स्वास्थ्य, जीवन, करियर, जैसे सहायता कर सकती हूँ, करती हूँ।  
10. अपनी उदासी से डील करती हूँ।  जिन लोगों के मैसेज आते हैं, उनके लिए जो कर पाऊँ वो करती हूँ।  
11. वाहियात मैसेज अवॉयड करने और ब्लॉक करने का काम करती हूँ।  
12. लिखती हूँ।  
13. लोगों से क्रिएटिव, प्रोफेशनल प्रोजेक्ट्स पर collaborate करती हूँ।  
14. इस सब के बीच कुछ थोड़ी शारीरिक एक्टिविटी, गाना गाने, मैडिटेशन करने की कोशिश करती हूँ कि शुगर हाथ के बाहर न हो जाये।  

अब इस के बाद शिकायत है, तो रहे यार।  आप अपने जीवन में खुश रहो, मैं अपने में खुश हूँ :)

आप हैं, आप मुझे चाहते हैं, आप मुझसे शिकायत करते हैं, आप को मुझसे कुछ उम्मीद है, बस बहुत है, और क्या चाहिए?

#मन_के_गहरे_कोनों_से #शुक्राने_की_डायरी_से
©Anupama Garg 2022

Tuesday 24 May 2022

प्रेम क्या है

 

प्रेम क्या है विहान?

अगर ये जगत मिथ्या है, तो प्रेम भी मिथ्या ही हुआ न? और अगर ये जगत सच है, तो सभी कुछ तो प्रेम हुआ।

तुमने कहा निब्बा निब्बी का प्रेम नहीं पढ़ना, कुछ अच्छा पढ़ना है। अच्छा क्या है? कहो तो सत्य क्या है? सुंदर क्या है? शिव क्या है?

आज बहुत देर तक सोचती रही कि प्रेम पर क्या ही लिख लूंगी आखिर? यहाँ तक कि ढूंढते खोजते कुछ पुरानी पोस्ट्स भी खोज निकाली कि तुम्हें लिंक दे के कहूँगी "अभी यही पढ़ लो, ये भी बुरा नहीं है।" लेकिन, इससे पहले कि कुछ लिख पाती एक दोस्त से बात करने लगी, यहीं फेसबुक पर। 

उससे बात करते करते बात बहुत दूर निकल आई।  फेमिनिज़्म, धर्म, Saaaax, रिश्ते, बस 'प्रेम' शब्द छोड़ कर सब कुछ गुज़रा मेरे दिमाग से।  और जब वो सोने चला था, तो मैं जिसे आधे घंटे पहले किलक के नींद आ रही थी, उसकी रात की नींद उड़ गयी थी।  जैसे ही हमने बात करना बंद किया, मुझे भयानक अकेलापन महसूस हुआ। 

और उस अकेलेपन को ले कर मैं यूट्यूब गयी।  उसी अकेलेपन ने मेरा शुक्राना जगाया - अरे घर वाले, दोस्त, सब हैं तो।  और वहां से पिछले साल कोविड में  इस समय हर घर में फैली चिंता, इतने घरों में फैला सन्नाटा, हर तरफ मरघट वाला विषाद, और लोगों का  इतना सारा छूटा अधूरा प्यार।  कैसा प्यार होगा वो जो अपनों को ऐसे ही एकदम से छोड़ कर चला गया होगा ?

तुम बोर हो गए? लग रहा होगा, मैंने इन्हें प्रेम पर लिखने को कहा, और ये grief प्रोसेस करने बैठ गयीं।  क्या करूँ विहान? मुझे ख़ुशी वाला प्रेम बहुत पसंद है, लेकिन मुझे प्रेम की उदासी, उसका अधूरापन हमेशा ज़्यादा सच्चा लगता है।  अपने जैसा।  आधा-अधूरा। और फिर जो विचार तंतु खुलने लगे तो खुलते ही गए।  मैंने शुक्राना भी कर लिया, अपनों की खैर के लिए दुआएं भी मांग लीं, मेडिटेशन  भी कर ली, लेकिन फिर भी जब सो नहीं पायी, तो ये पोस्ट लिखने बैठी हूँ। 

मेरे लिए यही प्रेम है ! इंसान होने का अधूरापन।  टूटे हुए वादे।  अनकही बातें।  ख़ुशी में नज़र लगने का डर, और इतनी तेज़ी से धड़कता दिल कि लगने लगे जैसे "दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं, याद इतना भी कोई न आए"।  

मैं प्रेम के बारे में क्या सुन्दर लिखूं? ये कि जब टूटता है, तो तुमको भी आधा मार जाता है ? ये कि जब मिलता है भरपूर मिलता है? ये कि प्रेम गली अति साँकरी? ये कि वक़्त रहते अपने लोगों का प्यार पहचान लेना चाहिए? तुम्हीं बताओ प्रेम के बारे में क्या है जो नया है विहान ?

बल्कि, जैसा हम प्रेम को समझते हैं, उसका कितना हिस्सा बाज़ार है, कितना हिस्सा समाज, और कितना हिस्सा खुद, ये भी कहाँ पता है मुझे? खाली कहने को प्रेम कह दूँ किसी चीज़ को?

मुझे वही अधूरा लेकिन जलता हुआ प्रेम आता है, जो लड़ने-रूठने-मनाने में, जीने-मरने में, कसमें खाने - वादे तोड़ने में होता है। मुझे वही आधा-अधूरा प्रेम आता है जिस पर कोई हैप्पी एंडिंग वाली फिल्म नहीं बनती; लेकिन जिस पर लिखने के लिए कोई ट्रैजिक कहानियाँ भी नहीं होतीं।  रोज़मर्रा वाला एवरीडे प्रेम।  प्रेम जो नहीं मिलता, कभी कभी परिवार से, कभी कभी निब्बा निब्बी से, कभी कभी दोस्तों से,  यहाँ तक कि बहुत बार खुद से भी।  लेकिन प्रेम जो जागृत है, जो ज़िंदा है। 

सुनो, सच ये है कि मैं प्रेम के बारे में ज़्यादा कुछ जानती समझती नहीं।  मैं बस इतना जानती हूँ कि जब, जो, जैसा महसूस हो, उसे सामने वाले से, तब, वैसा ही कह पाने की स्पेस होना, शायद प्रेम की सबसे बड़ी निशानी है मेरे लिए।  Privilege  है इस तरह का प्रेम, समझती हूँ, लेकिन ऐसा ही है मेरा वाला प्रेम। जो जीवन में जो करता है अपने अस्तित्त्व के हर कतरे के साथ करता है।  लिखता है, तो सब झोंक देता है लफ़्ज़ों में; गाता है तो रो भी लेता है; पढ़ाता है तो सीख भी लेता है।

प्रेम जो जब होता है तो तुम्हारा पोर पोर ज़िंदा आग से भरा होता है। प्रेम जो जलता है।  मुझे और कोई प्रेम नहीं आता दोस्त।  और जब जब मुझे ऐसा प्रेम महसूस होता है, तो आसमान में चमकता सूरज मेरी आँख में आँख डाल कर मुझे प्रेम की चुनौती देता है।  हवा सरसराती हुई बाल बिखेर के चिढ़ाती है, मनो अभी पिलो फाइट होगी।  जल मेरे साथ एक हो कर, बिना मुझे Dominate किये, मेरा 70 % बन जाता है; मुझे भीतर से ज़िंदा, और बाहर से निर्मल करता है।  मिट्टी पैरों में लिपटती, धूल सी इठला के सर चढ़ती, कभी कभी आँख में गिरी, रड़कती सी, अलग ही कुछ नाराज़ - सा कह जाती है।

कभी कभी प्रेम में ऐसा लगता है, कि देह मिटटी हो जाये, और रूह आसमान। किसी और के आँसू मेरी आँख से झरते जाते हैं, बेसाख्ता।  बाबा फरीद की आवाज़ गूंजती है अचानक कहीं - "जा तुझे इश्क़ हो" !

 

©Anupama Garg 2022

Monday 23 May 2022

Benevolent Sexism

 समझिये क्या है बेनवॉलेंट सेक्सिस्म (benevolent sexism ) .

ये महिलाओं  के प्रति द्वेष जितना बुरा नहीं दीखता।  लेकिन है वही।  मीठे शब्दों की चाशनी में, चिंता करने की  आड़ में, सपोर्ट का मुलम्मा पहना कर जब औरतों के प्रति चली आ रही स्त्रीद्वेषी बातों को ही रूप बदल कर जस्टिफाई किया जाता है तो वो benevolent sexism है।  ऐसा करने वाले स्त्री पुरुष दिखते तो भले हैं, लेकिन होते नहीं।  

उदाहरण - किसी लड़के ने किसी लड़की को सोशल मीडिया पे इनबॉक्स में वाहियात मेस्सगेस भेजे।  लड़की ने स्क्रीनशॉट चिपकाया।  आपने उस दुष्ट इन्बॉक्सिए को छोड़ कर महिला से कहा - देखिये आपके भले की ही कह रही /रहा हूँ, ये सब तो होता ही है।  मर्द सुधरते कहाँ हैं जी, आप ध्यान देना बंद कीजिये। अपनी एनर्जी / अपना समय बर्बाद मत कीजिये।   

ये विक्टिम शमिंग तो है ही,  benevolent sexism भी है। आपके हिसाब से महिला को शौक है अपनी एनर्जी / अपना समय बर्बाद करने का?  क्यों नहीं सुधरेंगे साहब मर्द ? आप में और रेपिस्ट से शादी करने की सलाह देने टाइप वाली खाप पंचायत में फर्क क्या रहा फिर?

ऐसे ही कल एक पोस्ट पढ़ी।  एक जाने माने सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर, journalist जो रोज़ एक कहानी सुनाते हैं, उन्होंने अपने हालिया ऑपरेशन और पत्नी  गुणगान गाये।  बताया कैसे पत्नी का वही ऑपरेशन 20 साल पहले होने पर उन्हें कोई होश नहीं था कि कैसे ध्यान रखना है ? उन्होंने लच्छेदार शब्दों में कहा औरतों को व्रत नहीं करने चाहिए, आदमी को औरत की लम्बी उम्र के लिए व्रत करने चाहिए।  कैसे उनकी दादी महान थीं, लेकिन माँ के गुजरने के बाद पिता टूट गए।  और तो और कैसे औरतें जी लेती हैं पतियों के मरने के बाद, विधवाओं को प्रताड़ना पहले मिलती थी, लेकिन ' बेचारे' जी भी नहीं पाते।  

मुझे सिर्फ इतना कहना है -  ये भी benevolent sexism hai, महिलाओं की सेवा, उनके काम, उनके त्याग, आदि का महिमामंडन सदियों से चला आ रहा tool है। शब्द कुछ भी इस्तेमाल किए गए हों, सिर्फ लच्छे लपेट देने से और भावना की चाशनी में डुबो देने से inherent sexism चला जाए ज़रूरी नहीं। संवेदनशीलता और समझ एक ही बात नहीं होते।

व्रत के बदले व्रत करने के वादे सिर्फ यही हैं,वादे। व्रत से उम्र लम्बी नहीं होती।  ये एक अलग बात है कि व्रत आस्था की ज़मीन से भी उपज सकता है, और कंडीशनिंग से भी।  इसलिए ये कहना कि महिलाओं को व्रत छोड़ देने चाहियें, पुरुषों को करने चाहियें, का मतलब है कि औरतों पे subconscious pressure डालना और ये कहना कि देखो व्रत करने से प्रभाव पड़ता है।  उसका नतीजा? गिल्ट ट्रिप।  जमीनी बदलाव इन वादों से नहीं आते, ये आप सब भी अच्छी तरह  जानते हैं, मैं भी, और लेखक महोदय भी । न जानते तो व्रत से ही क्यों न जी लेते, सर्जरी क्यों करवानी थी ?   

ये  वैसे वाला लेख है जिसमें देखो मेरी दादी कितनी महान थीं, मेरी पत्नी कितनी महान है। मैं तो एक ग्लास भी खुद नहीं उठा के रख पाता यार, पत्नी न हो तो मेरा ध्यान कौन रखे टाइप।  क्यों जी, अपनी तबियत का ध्यान रखना पुरुषों इतना बोझिल लगता है कि महिला न हो तो पुरुष जी नहीं पाता, लेकिन पत्नी पे दोगुना भार डालते समय याद नहीं आता कि ये इंसान है मशीन नहीं?

बीमारी में साथी का, बल्कि किसी भी करीबी का ख्याल रखना नॉर्मल है, स्त्री की महानता नहीं। और पुरुष को भी आना चाहिए, इसमें कुछ अनोखा नहीं है। पुरुष को सर्वाइवल स्किल्स सीखने की बजाय व्रत करना सिखाएंगे? अपनी बीमारी में खुद का बेसिक ख्याल कर पाना (गंभीर बीमारियों को छोड़ कर), ये याद रख पाना कि करवट किस ओर लेनी है, इतना बेसिक सर्वाइवल स्किल्स का हिस्सा है। सबको आना चाहिए। क्या औरत क्या आदमी।

लेकिन यहां तो सबको सेवादारनियां चाहिएं, कर्तव्य के नाम में ममता के नाम में, त्याग के नाम में, प्यार के नाम में। अब ये नया मुलम्मा है, अजी इनको खुशी मिलती है ये सब कर के। इनके तो जीना का तरीका, जीने की वजह ये ही है ।

तो ऐसा है - खाली इन्फ्लुएंसर या बड़के भैया दीदी, हो जाने से स्त्रीद्वेष चला जाये ज़रूरी नहीं।  द्वेष भी चला जाये ये भी ज़रूरी नहीं।  कई लोग छुपाने को मीठी मीठी लपेटते हैं, ऐसों से सावधान रहें।  असलियत पहचानें।  वो कहते हैं न दिखावे पे न जाओ, अपनी अकल लगाओ !


©Anupama Garg 2022