बात बचपन की है | छोटी थी मैं, मुझे घर का सबसे खुरदुरा कम्बल अच्छा लगता
था | मम्मी पापा मुझे नाज़ुक चीज़ें ओढ़ाना चाहते और मुझे पता नहीं उस
नीले-मैरून कम्बल के फुंदों को गिन गिन के क्या सुकून मिलता | ५ -६ साल की
ही रही हूँगी मैं, लेकिन सोने की चोर तब भी थी | करवट ले के माँ से चेहरा
दूर कर, कम्बल के जितने फुन्दे मेरे हिस्से आते, उन्हें बार बार गिनती |
एक
डॉक्टर, एक गुड़िया, और एक मैं – उस गुड़िया की माँ, इन तीनों की कहानी
बार बार मैं अपने दिमाग में रचती | रोज़ नयी बातें, रोज़ नया किस्सा,
किरदार मगर बस ये ही तीन | उस उम्र तक गीताप्रेस की बाल भागवत पढ़ चुकी थी |
किसी ने पूछा बड़ी हो के क्या बनोगी तो कह दिया मीरा बाई | कुछ लोग चुप
रहे, कुछ ने वैसे ही समझा जैसे सब समझते हैं – लड़की को ये सब मत पढ़ाओ!
खैर पढ़ाया तो पापा मम्मी ने वो ही जो पढ़ाना था, और पढ़ा हमने भी वो ही जो हमें पढ़ना था
और हम बाल भागवत से हो कर, रामचरितमानस, भगवद गीता, श्रीमद्भागवत, से चलते
हुए, मंटो, खुशवंत सिंह, टॉलस्टॉय, आशापूर्णा देवी, तिलक, गांधी, गोखले,
सब तक हो कर वापस आ गए | अब सब रगों में दौड़ता है, चेतन मस्तिष्क को शायद
याद भी नहीं है | लेकिन ये बहुत अच्छे से याद है, कि मुझे तब भी ऐसे ही
घुटन होती थी | लगता था किसी ने बाँध दिया है | दुनिया भर की आज़ादी के
बावजूद, मुझे सुकून अपनी काल्पनिक दुनिया में ही मिलता था |
बहुत
वक़्त लगा ये समझने में, कि कल्पना सच नहीं होती | लेकिन उससे भी ज़्यादा
समय लगा ये समझने में, कि किसी तरह यदि कल्पना को शब्दों में ढ़ाल लो, और
उसे मुंह खोल, बुक्का फाड़ कह दो, तो कल्पना सच हो भी सकती है | ख़ैर देर
आयद, दुरुस्त आयद |
मीरा मेरे लोक मानस की माँ हैं | लेकिन वो सारी
औरतें जो करमा जैसी हैं, आग सुलगातीं , घर के काम करतीं, खीचड़ा पका के
डंडे के ज़ोर से धमका के, बचपन में ही कृष्ण को पुकारतीं हैं – उन सब माँओं
को कैसे भूल जाऊँ ? एक राजरानी, और एक का काम खेती-किसानी | आज इस उम्र
में कोई जब पूछता है क्या बनना है – तो लगता है मीरा बनना भी उतना ही दुरूह
है, जितना करमा बनना | सुगम बस एक ही चीज़ है, प्रेम ! और बस इसीलिए, मैं
मौन रह जाती हूँ, बस मुस्कुरा देती हूँ |
© Anupama Garg 2021