Friday 29 January 2021

रंग तो रंग हैं

सुना है ख़ास रंग तीन ही होते हैं
सुना है, हर रंग के अनेकों शेड्स होते हैं |
हरे के शेड्स, एक कौम के लिए,
लाल के, किसी राजनैतिक विचारधारा के लिए,
नीला लड़कों का, गुलाबी लड़कियों का,
और इंद्रधनुषी? क्युईर लोगों का कहते सुना है मैंने |

खेतों खलिहानों में सुना है,
हरे से सुनहला होता है रंग फसल का |
लेकिन भूख का रंग कौनसा है?
और प्यास का?

तिरंगे में तीन रंग हैं,
वीरता, अमन, और खुशहाली के|
मगर रंग कौन सा है,
कहो तो ज़ारो-ज़ार छलकते आँसुओं का?





वर्दियों के भी रंग सुने हैं
खाकी, सुफैद, काला |
मगर कहो तो तुम,
कौन सा है रंग,
शर्मसार करने वाले फैसलों का?

रंग हैं इतना भर काफी नहीं है,
रंगों को भरना होगा ,
सही रंग सही जगह |
तभी होगा सृजन सुंदरता का,
प्रकृति के गर्भ से,
मानव के मर्म से |

बाकी क्या है, रंग तो रंग हैं
सब मिल गए तो प्रकाश होगा,
वरना तो कालिख पुती ही है |
मुंह पर,
देह पर,
आत्मा पर भी!

© Anupama Garg 2021

Wednesday 27 January 2021

Gratitude

 Life has only logical response – Gratitude. We are entitled to nothing, and no one owes us anything. In fact, gratitude is also the only self-help tool that works. It empowers us, makes us humble, makes us grateful, and allows us to trust others again.

Gratitude is a practice that one needs to build and deepen over time. So, here is my new year gift to you, the latest book on gratitude. The book works if you work the book. So go on, click on the image, use the workbook, share it, forward it, pass it on, and the book will have fulfilled its purpose.

Much love and gratitude!

 


 

सुगम बस एक ही चीज़ है, प्रेम !

 बात बचपन की है | छोटी थी मैं, मुझे घर का सबसे खुरदुरा कम्बल अच्छा लगता था | मम्मी पापा मुझे नाज़ुक चीज़ें ओढ़ाना चाहते और मुझे पता नहीं उस नीले-मैरून कम्बल के फुंदों को गिन गिन के क्या सुकून मिलता | ५ -६ साल की ही रही हूँगी मैं, लेकिन सोने की चोर तब भी थी | करवट ले के माँ से चेहरा दूर कर, कम्बल के जितने फुन्दे मेरे हिस्से आते, उन्हें बार बार गिनती |

एक डॉक्टर, एक गुड़िया, और एक मैं – उस गुड़िया की माँ, इन तीनों की कहानी बार बार मैं अपने दिमाग में रचती | रोज़ नयी बातें, रोज़ नया किस्सा, किरदार मगर बस ये ही तीन | उस उम्र तक गीताप्रेस की बाल भागवत पढ़ चुकी थी | किसी ने पूछा बड़ी हो के क्या बनोगी तो कह दिया मीरा बाई | कुछ लोग चुप रहे, कुछ ने वैसे ही समझा जैसे सब समझते हैं – लड़की को ये सब मत पढ़ाओ!

खैर पढ़ाया तो पापा मम्मी ने वो ही जो पढ़ाना था, और पढ़ा हमने भी वो ही जो हमें पढ़ना था 😃 और हम बाल भागवत से हो कर, रामचरितमानस, भगवद गीता, श्रीमद्भागवत, से चलते हुए, मंटो, खुशवंत सिंह, टॉलस्टॉय, आशापूर्णा देवी, तिलक, गांधी, गोखले, सब तक हो कर वापस आ गए | अब सब रगों में दौड़ता है, चेतन मस्तिष्क को शायद याद भी नहीं है | लेकिन ये बहुत अच्छे से याद है, कि मुझे तब भी ऐसे ही घुटन होती थी | लगता था किसी ने बाँध दिया है | दुनिया भर की आज़ादी के बावजूद, मुझे सुकून अपनी काल्पनिक दुनिया में ही मिलता था | 

 
 बहुत वक़्त लगा ये समझने में, कि कल्पना सच नहीं होती | लेकिन उससे भी ज़्यादा समय लगा ये समझने में, कि किसी तरह यदि कल्पना को शब्दों में ढ़ाल लो, और उसे मुंह खोल, बुक्का फाड़ कह दो, तो कल्पना सच हो भी सकती है | ख़ैर देर आयद, दुरुस्त आयद | 
 




मीरा मेरे लोक मानस की माँ हैं | लेकिन वो सारी औरतें जो करमा जैसी हैं, आग सुलगातीं , घर के काम करतीं, खीचड़ा पका के डंडे के ज़ोर से धमका के, बचपन में ही कृष्ण को पुकारतीं हैं – उन सब माँओं को कैसे भूल जाऊँ ? एक राजरानी, और एक का काम खेती-किसानी | आज इस उम्र में कोई जब पूछता है क्या बनना है – तो लगता है मीरा बनना भी उतना ही दुरूह है, जितना करमा बनना | सुगम बस एक ही चीज़ है, प्रेम ! और बस इसीलिए, मैं मौन रह जाती हूँ, बस मुस्कुरा देती हूँ |

© Anupama Garg 2021

प्रेम कैसा है ?

 प्रेम कैसा है ? ८ अरब मनुष्यों और करोड़ों जीवों को सहेजती धरती जैसा | कहिये कि वो तो प्यार नहीं कर्तव्व्य है ? कहिये कि वो प्रेम नहीं स्वभाव है ? कितनी आसानी से हम मनुष्य आकाश को हल्के में लेते हैं | कितनी आसानी से हम ये मान लेते हैं, कि हम सूर्य की ऊर्जा का इस्तेमाल कर सकते हैं | कभी कभी मुझे लगता है, विज्ञान और दर्शन प्रेम करना सिखाते हैं | बिज़नेस बस बहुत दूर हो गया इन दोनों से, वर्ना समस्या तो वहां भी शायद इतनी न होती |

क्यों मनुष्य ने खुदाई की होगी? इतना प्यार रहा होगा धरती से, कि मन किया होगा इसे और जानूँ | और फिर चमकते टुकड़े मिले, और प्रेम का स्वरुप बदल गया होगा | क्यों मनुष्य ने किसानी की होगी? नवांकुर फूटने पर होने वाला आह्लाद कैसा रहा होगा, विस्मयकारक? फिर पेट में भोजन गया, और संतुष्टि ने विस्मय की जगह ले ली होगी प्रायोरिटी लिस्ट में |

प्रेम की अपनी यात्रा में, मैं अभी बाँटना सीख रही हूँ, सहना सीख रही हूँ| जितना सीख चुकी हूँ, उससे कहीं ज़्यादा बाकी है | प्रेम की यात्रा में, मैं अपनी अपेक्षाओं का बोझा न ओढ़ना चाहती हूँ, न लादना | मुझे भारी लगता है | ऐसे बहुत लोग हैं, जिनकी साफ़ कह कर मांग पाने की क्षमता मुझे चमत्कृत करती है | उनका सम्मान भी है | लेकिन मैं प्रेम अपने तरीके से टटोल के देखना चाहती हूँ | मैं सहनशीलता, ठहराव, और बांटने की क्षमता के प्रति आग्रही हूँ |

लोग हैं, जिनसे प्रेम है, और जब वे किसी और पर ध्यान देते हैं, तो अखरता है | लेकिन ये जानती हूँ, कि वे लोग हैं, क्योंकि उनके माँ -पिता ने अपने प्रेम की धरोहर इस देश-दुनिया को सौंप दी | ये भी कि वे लोग हैं, क्योंकि उन्होंने अपना प्रेम दोस्तों, परिवार, रिश्ते-नातेदार, बृहत्तर समाज को दे दिया | मगर सबसे ज़्यादा जो महसूसती हूँ, वो है ये बात कि मैं निर्बाध बहना चाहती हूँ, और इसलिए ये आवश्यक है कि अपने जीवन के हर प्रेम के स्त्रोत को भी निर्बाध बहने दूँ |

और निर्बाध बहने देने का, निर्बाध समेट लेने का, निर्बाध समेट लिए जाने का, धरती से बड़ा उदाहरण क्या ही होगा ? जिस क्षण में ये सोचती हूँ, उस क्षण में मेरे सामने जो बात एकदम निर्मल जल के जैसी साफ़ चमकती है, वो है प्रेम का स्वरुप | मेरे लिए प्रेम कैसा है ? ८ अरब मनुष्यों और करोड़ों जीवों को सहेजती धरती जैसा |

©  Anupama Garg 2021