Saturday, 30 May 2020

प्रेम और प्रतीक्षा - 2


भंते! क्या तुम्हारा और मेरा संघ में होना,
एक जैसा है ?
क्या साधु और साध्वियाँ वाकई देख पाते हैं,
आत्म का स्वरूप,
देह के पार ?
आँखों में, विचलित हुए बिना ?

यदि नहीं,
तो क्यों न सब संघों, सब मठों को विघटित कर दिया जाये?
क्यों न उन सब प्रतिमानों को ध्वस्त कर दिया जाये,
जो आधी आबादी से कहते हैं,
"साध्वी मत बनो, रहो अपने अदम्य आप का तिरस्कार कर"
जो आधी आबादी को भिक्खुणी बनाते तो हैं, मगर मन मार कर |

कहो तो भद्र,
क्या संघ में होना वैसा ही है,
जैसा संग में होना?

कहो देव!
क्या मठ में होना वैसा ही है,
जैसा एक मत में होना?

अगर संग होते हम, तो रक्त मेरा,
तुम्हारे लिए शायद उत्सव का विषय होता
अब क्या है?
करुणा का विषय?
या लज्जा का ?
या विरक्ति का?
या ऐसा है कि जिस कोख से उपजे थे
तुम और तुम जैसे कई सहस्त्र कोटि
उसी गर्भ से, उसी शरीर से जुगुप्सा होती है तुम्हें?

तुम सोचते होंगे, तुमसे क्यों इतने प्रश्न?
क्या करूँ?
बुद्ध तो अप्प दीपो भव कह कर चल दिए |
और शंकर ने शिवोहम कहा, मगर मुझे उसके अयोग्य मान कर |

सोचो आर्य,
जिसे तुम भिक्खु  होना कहते हो,
वो संसार की अगणित स्त्रियां
सहज ही कर जाती हैं |
बिना महिमामण्डन के |
ऐसे में, देव!
भिक्खु (णी)? मैं
साध्वी? मैं
और तुम?

तो क्या फिर समय आ गया है ?
संघ के साथ साथ संग को भी सहजता से स्वीकार करने का?

क्या समय हो गया आर्य?
मठ में भिन्न शरीर और भिन्न मत भी, अङ्गीकार करने का?

यदि आ गया हो उचित समय,
तो चलो पुरुष,
भिक्षान्न पकाते हैं, साथ मिल कर |
नदी तट से शीतल जल पीते हैं, ओक भर कर |
बाउल गाते हैं, स्वर रच कर |
और फिर करते हैं प्रयाण
अलग अलग नहीं
इस बार साथ-साथ |

आखिर और भी तो हैं
जिन्हें प्रतीक्षा है !

© Anupama Garg 2020

Friday, 29 May 2020

प्रेम और प्रतीक्षा - 1


वो मिला मुझे,
ले कर ज्ञान का अथाह भण्डार
मैं प्रेम की तलाश में भटक रही थी
हमने विमर्श किया और चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार

वो मिला मुझसे,
लेकर हिंसा, अत्याचार
मैं क्षमा की याचिका थी
हमने रक्त बहाया और चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार

वो मिला मुझसे,
लेकर सहज स्वीकृति का भण्डार
मगर इस बार मैं प्रेम की क्षत्राणी थी
हम बैठे, हमने हमने शाब्दिक विवाद भर किया ,
और फिर चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार

वो मिला मुझसे,
लेकर असमंजस, संकोच
लेकिन मैं विश्वस्त थी,
उसके हाथ  थाम, पहले बैठाया,
फिर उसके मन की सुन कर उसे विदा किया मैंने,
हम चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार

काश, कोई अपना नग्न ह्रदय
और भग्न प्रतिमान ले कर मिलता
खोल देती मैं उसके लिए,
पुरातन, मगर अजर, अमर,
प्रेमिल ह्रदय के द्वार
हम बैठते, बात करते,
भिक्षान्न पकाते, नदी का निर्मल जल ओक भर कर पीते
और फिर चल देते
अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार |
आखिर और भी तो हैं,
जिन्हें प्रतीक्षा है !


© Anupama Garg 2020

Monday, 11 May 2020

बिलेटेड हैप्पी मदर्स डे मुझे भी !

बिलेटेड हैप्पी मदर्स डे मुझे भी !

मैं स्त्री विमर्श से कतराती क्यों हूँ? कई कारण हैं :

1. मैं इंटेरसेक्शनल फेमिनिज़्म को अभी पूरी तरह से समझती नहीं | इसलिए मैं पढ़ती ज़्यादा हूँ और मुंह खोल के भक से बकती कम |
2. मेरे आस पास, यहाँ फेसबुक पे, ऑफलाइन, घर पे, ऑफिस में, बहुत सी रोल मॉडल महिलाएं हैं | जब मैं इन सबके जीवन देखती हूँ, तो इन सब का स्त्री विमर्श मुझे उतना ही विविध नज़र आता है जितना कि भारतीय समाज |
3. मैं आस्तिक हूँ, कर्म, ज्ञान, भक्ति, पुनर्जन्म वगैरह मानती हूँ | उन्हें सड़ी-गली परंपरा और लिज़लिज़े रिवाज़ों की तरह ढोती नहीं हूँ | उन में से अपने काम का निकालती हूँ, अवसाद से बाहर आती हूँ और फिर अपनी जिजीविषा ले कर जीवन में लौट जाती हूँ | ऐसे में, फेमिनिज़्म की स्वनामधन्य या सेलिब्रिटी ठेकेदारों के साथ उलझने की आशंका मात्र से मुझे उलझन होती है |
4. मुझे सदियों पुराने लिटरेचर में महिला-उत्पीड़न देखने या ढूंढने का सेडो-मेसोचिस्टिक (पर/आत्मपीड़न )सुख नहीं चाहिए | जो प्रासंगिक है उठाओ, और आगे चलो बहन | मैं इतने भर में खुश हो लेती हूँ |
5. मूलभूत रूप से मैं 'अ'-वादी (anti-ist) हूँ | ऐसे में महिलाएं गरियाती हैं कि मुझे फेमिनिज़्म नहीं आता | पुरुष गरियाते हैं, क्योंकि उन्हें मैं पुरुष विरोधी लगती हूँ | और,मैं आलसी, सो मुझे विवाद कोई ख़ास पसंद नहीं | संवाद ज़रूर पसंद है |
6. मेरे लिए स्त्री मुक्ति, स्त्री सशक्तिकरण, आदि, जीने के विषय हैं, बातों के नहीं और विज्ञापन के तो कतई भी नहीं| कम-अज़-कम तब तक, जब तक कि सोशल एक्टिविज़्म या कैरियर-फेमिनिज़्म करने का मन न बना लूँ |

ऐसे में, मेरे पास एक ही विकल्प बचता है, चुप रहने का, पढ़ने का, लिखने का, अपनी सीमिततायें स्वीकार करने का, आस पास की महिलाओं के जीवन में प्यार, सपोर्ट, सॉलिडेरिटी घोलने का | अपने भीतर के सीमित ममत्त्व को सब के साथ बेझिझक बाँट लेने का |

वो मैं कर लेती हूँ | ठीक ही ठाक, उम्र और तजुर्बे के लिहाज़ से | बाकी सीखती रहूंगी |

बिलेटेड हैप्पी मदर्स डे मुझे भी !

© Anupama Garg 2020

  • अनुपमा, बहुत खूब। लेकिन यह लेख "वीमेनस् डे" के अनुसार लिखा गया प्रतीत होता है।


  •  🙏 मामा, ये एक अच्छा सवाल है | एक हद्द तक आपकी बात ठीक भी है | शेयर करती हूँ कि ये लिखने के पीछे चला क्या | उससे शायद थोड़ा समझ पाऊँ कि व्यक्तिगत तौर पे मेरे लिए स्त्री विमर्श और मातृ विमर्श बहुत ओवरलैपिंग कैसे बन गए इस पोस्ट में |

    कल सुबह से मदर्स डे चल रहा था, अब मैं अमूमन ये डे - वे मनाती नहीं | लेकिन कोरोना काल - - छोटी छोटी इच्छाएं 😂 समस्या ये कि मेरी पूरी फीड में दो ही तरह की पोस्ट - या तो माँओं को महिमा मण्डित करतीं या स्त्री विमर्श से लैस बाकी जनता को लाडू देतीं | फाइनली, मैंने वो किया जो करना था |

    दूसरी बात ये लगा कि कहीं न कहीं सत्य तो स्त्री विमर्श में भी है | शादी, मातृत्त्व, को महिमा मण्डित तो करते हैं हम |

    लेकिन जिस दुनिया में भूख, बीमारी,लोगों की असंवेदनशीलता से हज़ारों लोग मर रहे हों, उस दुनिया में नए बच्चे क्यों लाना? बच्चे अगर न लाना, तो उस ममत्त्व का क्या जो भीतर उमड़ता है ?

    क्या ममत्त्व और मातृत्त्व एक ही है? क्या पिता में, क्या पुरुषों में, सिंगल महिलाओं में ममत्त्व नहीं?

    फिर एक दोस्त की वाल पर प्रिविलेज और फेमिनिज़्म की डिबेट छिड़ी
    |
    एक दीदी ने अपने भीतर सबके लिए उमड़ जाने वाली ममता की बात की |

    ऑफलाइन लोगों ने एक दूसरे से ये सवाल भी उठाये कि स्त्री होने की सम्पूर्णता माँ बनने में है |

    मुझे कई माँएं याद आयीं जिनके बच्चे उनके पास नहीं रह पाए , किसी न किसी कारण से |

    एक दोस्त को दूसरी की दिवंगत माँ को याद करते देखा | दूसरी को देखा इस बच्ची की माँ बनते हुए |

    और कुछ लोगों ने मुझे भी मदर्स डे विश कर दिया 💕

    इनमें से कई से मैंने फर्स्ट-हैंड relate भी किया | कुछ को सिर्फ महसूस कर पाने की कोशिश में अपनी सीमितता भी देखी |

    सबसे गहरी जो चीज़ दिखी, वो ये थी, कि मैं इन सब बातों को ओपनली कहने में अमूमन कतराती हूँ | क्योंकि डिजिटल मीडिया की डिबेट्स कई बार बड़ी खूं-रेज़ हो जाती हैं | ऐसे में, उस मिनट में जो दिमाग में आया सबसे ज़्यादा उभर कर, वो ही पोस्ट बन गयी |

    अच्छा हुआ आपकी टिप्पणी से ये सवाल उपजा | अब जब पोस्ट आ चुकी तो उसके पीछे के विचार कमैंट्स में भी आ सकते हैं और एक नयी पोस्ट भी बन सकती है | :)