प्रेम क्या है विहान?
अगर ये जगत मिथ्या है, तो प्रेम भी मिथ्या ही हुआ न? और अगर ये जगत सच है, तो सभी कुछ तो प्रेम हुआ।
तुमने कहा निब्बा निब्बी का प्रेम नहीं पढ़ना, कुछ अच्छा पढ़ना है। अच्छा क्या है? कहो तो सत्य क्या है? सुंदर क्या है? शिव क्या है?
आज बहुत देर तक सोचती रही कि प्रेम पर क्या ही लिख लूंगी आखिर? यहाँ तक कि ढूंढते खोजते कुछ पुरानी पोस्ट्स भी खोज निकाली कि तुम्हें लिंक दे के कहूँगी "अभी यही पढ़ लो, ये भी बुरा नहीं है।" लेकिन, इससे पहले कि कुछ लिख पाती एक दोस्त से बात करने लगी, यहीं फेसबुक पर।
उससे बात करते करते बात बहुत दूर निकल आई। फेमिनिज़्म, धर्म, Saaaax, रिश्ते, बस 'प्रेम' शब्द छोड़ कर सब कुछ गुज़रा मेरे दिमाग से। और जब वो सोने चला था, तो मैं जिसे आधे घंटे पहले किलक के नींद आ रही थी, उसकी रात की नींद उड़ गयी थी। जैसे ही हमने बात करना बंद किया, मुझे भयानक अकेलापन महसूस हुआ।
और उस अकेलेपन को ले कर मैं यूट्यूब गयी। उसी अकेलेपन ने मेरा शुक्राना जगाया - अरे घर वाले, दोस्त, सब हैं तो। और वहां से पिछले साल कोविड में इस समय हर घर में फैली चिंता, इतने घरों में फैला सन्नाटा, हर तरफ मरघट वाला विषाद, और लोगों का इतना सारा छूटा अधूरा प्यार। कैसा प्यार होगा वो जो अपनों को ऐसे ही एकदम से छोड़ कर चला गया होगा ?
तुम बोर हो गए? लग रहा होगा, मैंने इन्हें प्रेम पर लिखने को कहा, और ये grief प्रोसेस करने बैठ गयीं। क्या करूँ विहान? मुझे ख़ुशी वाला प्रेम बहुत पसंद है, लेकिन मुझे प्रेम की उदासी, उसका अधूरापन हमेशा ज़्यादा सच्चा लगता है। अपने जैसा। आधा-अधूरा। और फिर जो विचार तंतु खुलने लगे तो खुलते ही गए। मैंने शुक्राना भी कर लिया, अपनों की खैर के लिए दुआएं भी मांग लीं, मेडिटेशन भी कर ली, लेकिन फिर भी जब सो नहीं पायी, तो ये पोस्ट लिखने बैठी हूँ।
मेरे लिए यही प्रेम है ! इंसान होने का अधूरापन। टूटे हुए वादे। अनकही बातें। ख़ुशी में नज़र लगने का डर, और इतनी तेज़ी से धड़कता दिल कि लगने लगे जैसे "दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं, याद इतना भी कोई न आए"।
मैं प्रेम के बारे में क्या सुन्दर लिखूं? ये कि जब टूटता है, तो तुमको भी आधा मार जाता है ? ये कि जब मिलता है भरपूर मिलता है? ये कि प्रेम गली अति साँकरी? ये कि वक़्त रहते अपने लोगों का प्यार पहचान लेना चाहिए? तुम्हीं बताओ प्रेम के बारे में क्या है जो नया है विहान ?
बल्कि, जैसा हम प्रेम को समझते हैं, उसका कितना हिस्सा बाज़ार है, कितना हिस्सा समाज, और कितना हिस्सा खुद, ये भी कहाँ पता है मुझे? खाली कहने को प्रेम कह दूँ किसी चीज़ को?
मुझे वही अधूरा लेकिन जलता हुआ प्रेम आता है, जो लड़ने-रूठने-मनाने में, जीने-मरने में, कसमें खाने - वादे तोड़ने में होता है। मुझे वही आधा-अधूरा प्रेम आता है जिस पर कोई हैप्पी एंडिंग वाली फिल्म नहीं बनती; लेकिन जिस पर लिखने के लिए कोई ट्रैजिक कहानियाँ भी नहीं होतीं। रोज़मर्रा वाला एवरीडे प्रेम। प्रेम जो नहीं मिलता, कभी कभी परिवार से, कभी कभी निब्बा निब्बी से, कभी कभी दोस्तों से, यहाँ तक कि बहुत बार खुद से भी। लेकिन प्रेम जो जागृत है, जो ज़िंदा है।
सुनो, सच ये है कि मैं प्रेम के बारे में ज़्यादा कुछ जानती समझती नहीं। मैं बस इतना जानती हूँ कि जब, जो, जैसा महसूस हो, उसे सामने वाले से, तब, वैसा ही कह पाने की स्पेस होना, शायद प्रेम की सबसे बड़ी निशानी है मेरे लिए। Privilege है इस तरह का प्रेम, समझती हूँ, लेकिन ऐसा ही है मेरा वाला प्रेम। जो जीवन में जो करता है अपने अस्तित्त्व के हर कतरे के साथ करता है। लिखता है, तो सब झोंक देता है लफ़्ज़ों में; गाता है तो रो भी लेता है; पढ़ाता है तो सीख भी लेता है।
प्रेम जो जब होता है तो तुम्हारा पोर पोर ज़िंदा आग से भरा होता है। प्रेम जो जलता है। मुझे और कोई प्रेम नहीं आता दोस्त। और जब जब मुझे ऐसा प्रेम महसूस होता है, तो आसमान में चमकता सूरज मेरी आँख में आँख डाल कर मुझे प्रेम की चुनौती देता है। हवा सरसराती हुई बाल बिखेर के चिढ़ाती है, मनो अभी पिलो फाइट होगी। जल मेरे साथ एक हो कर, बिना मुझे Dominate किये, मेरा 70 % बन जाता है; मुझे भीतर से ज़िंदा, और बाहर से निर्मल करता है। मिट्टी पैरों में लिपटती, धूल सी इठला के सर चढ़ती, कभी कभी आँख में गिरी, रड़कती सी, अलग ही कुछ नाराज़ - सा कह जाती है।
कभी कभी प्रेम में ऐसा लगता है, कि देह मिटटी हो जाये, और रूह आसमान। किसी और के आँसू मेरी आँख से झरते जाते हैं, बेसाख्ता। बाबा फरीद की आवाज़ गूंजती है अचानक कहीं - "जा तुझे इश्क़ हो" !
©Anupama Garg 2022