कभी कभी दोस्त लोग बहुत गुस्सा हो जाते हैं। समय ही नहीं है तुम्हारे पास? यार इतना भी क्या काम करना कि तुम्हें लोगों के लिए फुर्सत ही नहीं ? यार सोशल मीडिया और ऑनलाइन कम्युनिटी के लिए समय है, लेकिन हमारे लिए नहीं है? तो आज लगा कुछ बताऊँ कि ज़िन्दगी में क्या चल रहा है, क्या चलता आया है।
मेरे बचपन भर मैं बहुत अकेली थी। इंटेलीजेंट थी, अपने वक़्त, अपने सामाजिक परिवेश, अपने आसपास के लोगों, खास तौर पर बच्चों से बहुत ही आगे। मेरे पापा आम तौर पर बहुत प्रोटेक्टिव लेकिन बहुत आज़ाद ख्याल रहे। उनके वैचारिक मतभेद भी बहुत रहे रिश्तेदारों से, समाज आदि से। माँ सिंपल, समझदार, मुश्किल में लड़ जाने वाली, लेकिन वक़्त से आगे वाली महिला नहीं, हैं। मैं दोनों का एक अजीब सा घाल मेल थी।
नतीजा? मैं शर्मा जी की (गर्ग साहब की) वो लड़की थी, जो पढ़ती भी थी, गाती भी थी, लिखती, बोलती भी थी, समझदार भी थी। बस नकचढ़ी, गुस्सैल थी, गिट्टी (छोटे कद वाली) थी, चश्मुच और autoimmune के दाग वाली थी। तो माँ बाप लोग लहालोट हुए जाते, आस पास के बच्चे जल भुन जाते। मुझे घर में रहने की आदत थी, तो लेफ्ट आउट ज़रूर महसूस होता, लेकिन आदत पड़ गयी थी।
भाइयों को गली मोहल्ले, स्कूल, कॉलेज में दोस्तों के साथ घूमते , खेलते, देखती तो जलती भी थी। लेकिन सिर्फ़ जल के क्या हो जाता ? घर वाले जाने भी देते तो जाती कहाँ? किसके साथ ?
स्कूल में खुद को पढाई में डुबा कर रखा, और एक पॉइंट के बाद काम में। लेकिन बॉसेस और सहकर्मियों का भी वही हाल रहा बहुत अरसे तक। कभी कभी बॉसेस खुद भी कुढ़ जाते, क्योंकि authority के साथ हमेशा conflict में रही।
दिल्ली आने के बाद दोस्त बने तो या तो बहुत बड़े, या बहुत छोटे। बराबर वालों से बहुत नहीं पटी कभी, अब भी कम ही पटती है। और फिर भाई के एक्सीडेंट, और पापा के हार्ट अटैक के बाद कई रिश्तेदारों का तांडव नृत्य खूब देखा। उसका नतीजा है कि सामाजिक रिश्ते नातों के पुराने फ़्रेमवर्क्स से बहुत कोशिश करने के बाद भी मोह भंग हो ही गया।
लेकिन दोस्ती, जिसकी बचपन भर भरपूर कमी खलती थी, वो आँचल भर भर के एकदम से मिली। न जाने कौन कौन लोग साथ आ कर खड़े हो गए। दोस्ती का एक रिश्ता पहली बार ठीक से ज़रूर समझ आया।
कहते हैं, इंसान को जो मिलता है वही देता है। जैसे लोगों ने मुझे बाहों में भर के मुझ पर प्यार लुटाया, वैसे ही मेरा भी मन किया, कि जो दे सकती हूँ वो दूँ। जिनके पास पैसे थे, घर था, परिवार थे, प्यार था, experience था, उन्होंने मुझे वो दिया। मेरे पास समय था, ऊर्जा थी, मन था, कुछ skills थीं, और मेरी भावनात्मक ईमानदारी थी, तो मैं वो देती हूँ।
अजनबियों से पाया था, अजनबियों पर लुटाने में झिझक भी नहीं होती। जो मेरा है नहीं, उसे लुटाने का ग़म कैसा?
लेकिन ज़िन्दगी की एक सच्चाई भी तो है। खाने को दो रोटी, रहने को छत, पहनने को सस्ता लेकिन साबुत कपड़ा तो चाहिए न ? ऐसे में काम भी करना होगा। इन दिनों रूटीन कुछ ऐसा दिखता है :
1. रोज़ सुबह सुनीता आंटी साढ़े सात बजे आती हैं। उनके साथ ही नौ बजे मैं काम शुरू कर देती हूँ । हफ्ते में तीन दिन ऑफिस से, हफ्ते में दो दिन घर से।
2. शाम छः से दस बजे तक, हफ्ते में तीन दिन मैं अंग्रेजी पढ़ाती हूँ।
3. हफ़्ते में दो दिन सुबह अंग्रेज़ी पढ़ाती हूँ।
4. रात को टेलीग्राम पर पढ़ाती हूँ।
5. शुक्रवार को रात 10 बजे sexuality पर लाइव करती हूँ।
6. पढ़ाने के लिए पढ़ती हूँ।
7. ऑफिस के काम के लिए पढ़ती हूँ।
8. घर वालों से बात करती हूँ। उनकी तबियत, उनके ठीक रहने के लिए जो कर सकती हूँ, करती हूँ।
9. दोस्तों को स्वास्थ्य, जीवन, करियर, जैसे सहायता कर सकती हूँ, करती हूँ।
10. अपनी उदासी से डील करती हूँ। जिन लोगों के मैसेज आते हैं, उनके लिए जो कर पाऊँ वो करती हूँ।
11. वाहियात मैसेज अवॉयड करने और ब्लॉक करने का काम करती हूँ।
12. लिखती हूँ।
13. लोगों से क्रिएटिव, प्रोफेशनल प्रोजेक्ट्स पर collaborate करती हूँ।
14. इस सब के बीच कुछ थोड़ी शारीरिक एक्टिविटी, गाना गाने, मैडिटेशन करने की कोशिश करती हूँ कि शुगर हाथ के बाहर न हो जाये।
अब इस के बाद शिकायत है, तो रहे यार। आप अपने जीवन में खुश रहो, मैं अपने में खुश हूँ :)
आप हैं, आप मुझे चाहते हैं, आप मुझसे शिकायत करते हैं, आप को मुझसे कुछ उम्मीद है, बस बहुत है, और क्या चाहिए?
#मन_के_गहरे_कोनों_से #शुक्राने_की_डायरी_से
©Anupama Garg 2022
As authentic and as vulnerable I can be in a semi-personal, public space. I am who I am.
Friday, 3 June 2022
आखिर करती क्या हो ?
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