Tuesday 17 September 2019

असुविधाजनक बातें - भाग 4

कल लिखते लिखते प्राइवेसी पर कुछ विचार आये दिमाग में | तो प्राइवेसी या निजता आखिर कुछ है भी, या महज़ एक छलावा है ? देखने में मुद्दा सीधा सपाट है | ज़िन्दगी में जो मेरे घर की चारदीवारी में हो, वो प्राइवेट | जैसे - सेक्स प्राइवेट, बीमारी प्राइवेट, मानसिक रोग प्राइवेट, शादी के बीच की तकलीफ प्राइवेट, भाइयों का झगड़ा प्राइवेट, प्रेम प्रसंग प्राइवेट, क्या खाते हैं प्राइवेट आदि आदि | तो फिर मेरा अगला सवाल - फिर बलात्कार प्राइवेट क्यों नहीं? आत्महत्या, घरेलू हिंसा, कोर्ट केस, हॉनर किलिंग, ये सब प्राइवेट क्यों नहीं?

मुझे नहीं मालूम, कि हममें से वास्तव में कितने लोग प्राइवेसी के कांसेप्ट को वाकई समझते हैं, और कितने इसे मात्र सुविधा की तरह इस्तेमाल करते हैं | लेकिन मुझे जो दिखता है, वो ये है कि प्राइवेसी की आड़ में दबाव, शर्मिंदगी, चुप्पी, डर, धमकियाँ, और पता नहीं कितनी दूसरी चीज़ें छुपाई जाती हैं | प्राइवेसी का हव्वा ही एक लम्बे समय तक औरतों को दवा, इलाज, और डॉक्टर न मिल पाने का कारण था | यही कारण है आज भी बड़ी होती बहुत सी बच्चियां रजोनिवृत्ति या मासिक धर्म या प्रेगनेंसी या सेफ सेक्स से जुड़े सवाल नहीं पूछ पातीं | शहरों में शायद फिर भी कुछ चीज़ों के हालात थोड़े फ़र्क़ हों, मगर मनोरोग आज भी ऐसा विषय है जिनके बारे में कोई खुल नहीं बोलता |

सवाल ये है कि ये प्राइवेसी तब कहाँ चली जाती है, जब अच्छे भले पढ़े लिखे घरों के लड़के, किस लड़की के साथ सोये थे, ये चटकारे ले कर एक दुसरे को बताते हैं? ये प्राइवेसी तब कहाँ चली जाती है, जब PayTM से खरीदे कंडोम्स के ट्रांसेक्शन G B Road के किसी मेडिकल स्टोर के अगेंस्ट दिखता है? इस प्राइवेसी का क्या करेंगे जब डॉक्टर से यौन परामर्श न लेने के कारण यौन रोगों का इलाज नहीं हो पायेगा?

ओह वैसे, शायद आप भूल रहे हों | ऐसे बहुत से लोग हैं, दिव्यांग जन , कुछ विशेष रोगों जैसे पक्षाघात / लकवा, खास तौर से paraplegia से पीड़ित लोग, जिनके लिए प्राइवेसी की संकल्पना सिर्फ नाम मात्र को होती है | वो चाह कर भी प्राइवेसी नहीं हासिल कर पाते, कम से कम सामान्य लोगों जितनी नहीं | मैं ये नहीं कहती कि व्यक्तिगत स्पेस की ज़रुरत नहीं | बस इतना कह रही हूँ कि जिसे हम स्पेस, प्राइवेसी, निजी कहते हैं, अगर वो हमें समय पर मदद मांगने से रोकने लगे, तो किस काम की?

अगर किसी ने अपने निजी #metoo का ज़िक्र प्राइवेसी के चलते न किया होता, तो इतना विमर्श न हुआ होता | अगर लोगों ने हीमोफीलिया, कैंसर, डिप्रेशन के बारे में बात न की होती, तो सहायता समूह न बनते | अगर तलाक, दहेज़ उत्पीड़न, घरेलु हिंसा के बारे में लोग मुंह न खोलने लगते, अगर सती प्रथा को प्राइवेट मसला मान कर इग्नोर किया जाता, अगर बाल विवाह और शरीर की परिपक्वता की बात न की जाती, और ये कह दिया जाता, की ये तो निजी मसले हैं, तो कहाँ होते हम आज?

तो आज के विमर्श में मेरा आपसे सवाल यही है, कि प्राइवेसी सिर्फ सुविधा है, या ज़रुरत? और किस हद तक? वो कौनसा स्तर है, जहाँ प्राइवेसी मर्यादा से बदल कर शर्म बन जाती है?

©Anupama Garg 2019

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