Friday 14 August 2020

Where the mind is caged, the body can't be free!

 

"कितनी गिरहें खोली हैं मैंने, कितनी गिरहें अब बाकी हैं..."

चित्रा सिंह की आवाज़, गुलज़ार के बोल, और मेरे गंजे सिर को बेखयाली में सहलाता मेरा हाथ | मैंने धीमे से मुस्कुरा कर शीशे में झाँका | एक जोड़ी आँखें पलट कर मुस्कुराईं और कहने लगीं, "याद है, तुमने एक बार कुमार मुकुल का एक फेसबुक कमेंट पढ़ा था- सुनयना चूड़ियाँ पहनती है और मैं सोच! जब तुमने ये पढ़ा तो पलट के क्या लिखा था?"

 

 

 

मुझे याद आया मैंने क्या लिखा था |

मुकुल ने किसी को क्वोट किया ,

सुनयना चूडियाँ पहनती है,

और मैं सोच।’’

मगर,

क्या चूड़ियाँ और सोच,

नैसर्गिक रूप से, निश्चित ही,

एक दूसरे के विपरीत बोध है ?

क्या ही ज़रूरी है,

कि मैं जो सोच पहनूँ,

तो चूडियाँ छोड़ ही दूँ ?

मेरे घर में,

चूड़ियाँ और सोच,

साथ पहनी जा सकती हैं,

साथ पहनी जाती हैं

इसीलिए मैं,

चूड़ियाँ पहनती हूँ,

और साथ ही ...............सोच भी।

मगर जब मैंने ये लिखा था तो ३० पार किया ही था मैंने | कर्ज़ चुकता नहीं हुए थे | बेहतर नौकरी, बाहर पढ़ पाने की उम्मीदें, लम्बा वक़्त घर बिता पाने की आशाएँ, और उम्रदराज़ माँ - बाप की सेहत, और ज़िन्दगी की मुट्ठी से फिसलता वक़्त दिमाग पर हावी नहीं था | दिमाग आज़ादख्याल तो तब भी था, लेकिन आत्मा की स्वतंत्रता ने मेरे साथ बाहर- भीतर से लपक कर मन की बेड़ियाँ तोड़ने की साज़िशें नहीं रचाईं थीं |

प्रेम और साथ के बीच का फर्क, ईमानदारी, वफ़ादारी, झूठ, परिवार, शादी, करियर, आत्मपीड़न, आत्मवंचना, आत्महनन और ऐसे पचास हज़ार विचारों से भी वाक़फ़ियत नहीं थी तब | अब लगता है, उस सब की ज़रुरत ही नहीं होती, यदि सिर्फ तीन शब्द समझ आते हों. जीने आते हों - ईमानदारी, स्वतंत्रता, और करुणा | ऐसा नहीं कि फिर दुःख समाप्त हो जाता है, या कि उदासी सताती नहीं | ऐसा नहीं कि मौन से वैचारिक मुखरता समाप्त हो जाती है | लेकिन, फिर इस बात की चिंता नहीं रहती कि घर के बाहर एक गाडी खड़ी है, या ऑटो स्टैंड का ऑटो | कम से कम स्वयं की मृत्यु के भय से मुक्ति मिल जाती है | कम से कम परिवार बनाने का आंतरिक दबाव इस बात से नहीं होता कि वृद्धावस्था कैसे कटेगी |

शरीर वो कर पाता है, जो उसके लिए स्वास्थ्यवर्धक है | मन वो कर पाता है जो बीते कल की ग्लानि, या आने वाले कल की चिंता से ग्रस्त हो | आपके चुनाव ही नहीं, आपके चुनावों के कारण, और उनके परिणाम भी बदल जाते हैं |

चाहे वो चुनाव विवाह का हो, आस्था का, यायावरी का, परिवार का, एकाकीपन का, या मुण्डन का | जब मन स्वतंत्र हो तो इंतज़ार नहीं करना पड़ता किसी की सार सँभार करने के लिए, उसके लिए साथ कुछ बुरा होने का | जब मन स्वतंत्र हो, तो शर्म नहीं होती बेवजह की, किसी को ये कहने में, कि "तुमसे आकर्षित हूँ, लेकिन औरों से भी हूँ" | जब मन स्वतंत्र हो तो आप समझ पाते हैं, कि आपका शरीर, आपका बुढ़ापा, आपका अकेलापन, आपका परिवार, आपका सामाजिक सामंजस्य आपकी अपनी ज़िम्मेदारी है | और ये भी समझ पाते हैं कि आपकी ज़िम्मेदारी सिर्फ अपनी स्वतंत्रता ही नहीं, दूसरों की स्वतंत्रता का संरक्षण भी है |

इस स्वतंत्रता के लिए जो करना पड़े, कर लो, ऐसा मुझे लगता है | फिर, जब दौड़ना हो तब डर नहीं लगता, जब अफेयर करना हो तब भी नहीं, जब ब्रेकअप करना हो तब भी नहीं | फिर डर नहीं लगता, जब चूड़ियाँ पहननी हों, जब सोच पहननी हो, जब लम्बी चोटी में वेणी गूँथ लेनी हो, या जब मुण्डन करवा के बैरागन का मन लिए संसार के बीच रहना हो तब भी नहीं |


 

सर पर हाथ फेरते-फेरते, विचारों का तारतम्य एकाएक टूट गया जब मेरे सहयात्रियों ने दरवाज़ा खटखटाया और कहा, "चलो गंगा घाट पर नाव में, समय हो गया" | मणिकर्णिका घाट पर देह की मुक्ति देखते हुए, इस बार डर नहीं लगा | क्योंकि जब मन स्वतंत्र हो तो देह का बंधन भी नहीं रह जाता | 

 © Anupama Garg 2020

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