Sunday 10 April 2022

Cobalt Blue - A movie Review

 


एक ठहरा हुआ छोटा सा तालाब है, एक ठहरी हुई फिल्म है, कुछ ठहरे हुए फ्रेम्स हैं। एक कछुआ है, जिसका नाम Pablo Neruda रखने वाला नायक एक दिन पंख लगा के उड़ जाना चाहता है। मुझे PMT के लिए drop करके prepare करने वाला हर वो student याद आ गया जो अपने नाम के आगे Dr. लगा लेता था, छुपा के। तब manifestation, affirmation जैसे डेली 5 minutes guided meditation नहीं होते थे न । यही सपने होते थे, तालाब के कछुए से पृथ्वी का भार धोने वाला कच्छप अवतार बनने के सपने।

तनय नहीं बनी मैं फिल्म में बहुत ज़्यादा । कोई तो कारण है, इस बात के अलावा कि तनय gay है, कि मैं तनय के साथ ठगा हुआ महसूस नहीं कर पाई खुद को। मुझे याद नहीं कभी कि मैंने अपनी सेक्सुअलिटी को देह के आवेग में इतने ज़बरदस्त तरीके से महसूस किया हो।  लोग थे जिनके साथ मुझे अनुजा जैसा महसूस हुआ, लोग जिन्होंने जज नहीं किया, लोग जिन्होंने मुझे खाँचों में ठूँसने की कोशिश नहीं की; जिन्होंने मेरी देह से मेरा परिचय करवाया; क्योंकि उनका कोई कमिटमेंट नहीं था मेरे लिए। 

लेकिन पूरी तरह से अनुजा को भी नहीं महसूस कर पायी मैं, सिवाय एक एम्पथेटिक महसूसियत के, कि वो एक लड़की है जो ठगी गयी।  ये बात अलग है कि मैंने कभी जीवन में ठगा बहुत महसूस किया ही नहीं, न ही मुझ पर परिवार के 'उतने' दबाव रहे, मोल्ड में फिट होने के लिए।  मेरी सहेलियां भी नहीं रहीं, जो कभी मेरे लिए स्टैंड लेतीं, हालाँकि, एक ने कभी मुझे अपने लिए स्टैंड लेने को ज़रूर कहा, जो मैंने नहीं लिया। बस उसके काम में लंगी नहीं मारी इतना ही।   

मैंने जीवन के शुरुआती 22 - 25 सालों में खूब प्राइवेसी तलाशी।  एक कमरे में हम 5 जन और मेरी डायरी छुपाने की नीड हालाँकि मुझे मालूम था घर वाले नहीं पढ़ेंगे।  मेरी सेनेटरी नैपकिन छुपा कर रखने की नीड, क्योंकि घर में एक पिता और दो भाई हैं, जो उसी कमरे में रहते हैं।  जल्दी जल्दी मोहल्ले के shared latrine  में फ़ारिग होने की नीड कि सुबह लाइन लगी होती है।  फिर एक वक़्त आया, मैं दिल्ली गयी, होस्टल्स में नहीं रह पायी, और जब rented room  लिया उस पेइंग गेस्ट की तरह, तो प्राइवेसी की अफ़रात हो गयी।  बस लोगों को भावनात्मक रूप से ठगना नहीं आया।

उस फिल्म को जो कुछ ब्लू बनाता है, क्या वो वाकई उसे ब्लू बना रहा है, या पाब्लो नेरुदा को गाँव के तालाब की सीमा, और आसमान का अंतहीन नीला दिखा रहा है? सिवाय उसकी unethical polyamory के, मुझे कुछ भी नहीं खटका उसका।  उसका ये कहना कि क्या आज मैं अकेला सो जाऊँ; उसका bisexual होना, उसका बॉयफ्रेंड (अगर तनय उसका बॉयफ्रेंड था तो) की बहन के साथ भाग जाना, उसका लौट कर न आना, मुझे कुछ अजीब नहीं लगा।  शायद इसलिए कि जब आप अपनी जड़ें किसी शहर से उखाड़ लेते हैं एक बार, तो घर न होने का भाव आपके जीवन का स्थायी भाव बन सकता है।  ये इस पर निर्भर करता है, कि आप ऐसा कितनी बार करते हैं।  मेरे सभी विदेशी यायावर दोस्त याद आ गए मुझे उन कुछ फ्रेम्स में।  कहा न, बस एक ही चीज़ अखरी - उसकी unethical polyamory .

एक phase  था ज़िन्दगी में, जब queer  न होते हुए भी, मैंने लिटरेचर टीचर वाले loneliness , उस डेस्परेशन को भोगा है।  मैंने भले ही शॉक न लिए हों, न गे होने का 'ट्रीटमेंट' , लेकिन सेक्सुअलिटी की किसी भी fringe  पे खड़े होने का मेन्टल हेल्थ पर क्या असर पड़ सकता है, ये जानती हूँ।  3 किताबें छद्म नाम से क्यों लिखीं का कारण बहुत हद तक वही है, जो literature के प्रोफेसर की दयनीयता का है।  लेकिन उतना डेस्परेशन कितना दयनीय बनाता है आपको, खुद के लिए तक कितना undesirable, और उस desperation से बहार आने के लिए आपको एक मोमेंट ऑफ़ ट्रुथ चाहिए होता है; ये इस फिल्म ने शानदार तरीके से दिखाया। 

ये फिल्म बार बार जब देखूँगी मैं, तो सिर्फ उस प्रोफेसर के लिए, और उस nun के लिए जो अपना मोमेंट ऑफ़ ट्रुथ पहचान कर किसी तालाब के पाब्लो नेरुदा को पंख दे कर आसमान में उड़न भरने के लिए आज़ाद कर देते हैं। इस फिल्म के वो चंद scene जिसमें वो प्रोफेसर लेटरहेड पर sign करता है, और तनय से कपडे पहनने के लिए कहता है, और जिसमें Mary तनुजा को पैसे दे कर, सिफारिश लगा कर, नौकरी दिलवा कर भागने में मदद करती है; वो मुझे हमेशा याद दिलाएँगे की मैंने मेरे जीवन की पहली तीन किताबें क्यों, और कैसे लिखीं थीं। अपने मोमेंट ऑफ़ ट्रुथ को दोबारा एक फ्रेम में जीने के लिए। 

अच्छी फिल्म है, ठहराव लिए, कहीं कहीं सॉफ्ट पोर्न जैसी, कहीं कहीं कविता जैसी। प्रिविलेज वाली दुनिया तो है ही जिसमें 90 के दशक में लड़का लिटरेचर पढ़ रहा है, और लड़की हॉकी खेल रही है, लेकिन Kerala के बैकड्रॉप में स्वीकार पाना मुश्किल नहीं है एक संवेदनशील भाई और एक फेमिनिस्ट बहन को एक ही लड़के से प्यार हो जाना।शायद ये Kerala के प्रति मेरा बायस हो, या शायद लिबरल environments के प्रति, लेकिन उससे फिल्म के कथ्य पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता।  बस ये ध्यान रहे कि कोई भी फिल्म, मुद्दे के हर पहलू को सिरे से सिरे तक संभाल पाए ऐसा कम ही होता है।  फिल्म को फ्रेम्स के लिए देखिये, एम्पथी और सेल्फ एक्सेप्टेन्स की जर्नी के लिए देखिये, विमर्श इन्सिडेंटल है। 

 

 

 ©Anupama Garg 2022

 

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