Friday 27 September 2019

A woman who reclaims

I'm a woman in a saree
I'm a woman in hijab
I'm sometimes a Devi, at others just shabab
The bondage of the sendur, the suppression of a Naqab.

The moment I want to shed, you shudder and you cringe,
Yet me and mine for centuries, have been on fringe.

You tell me I should know my place and have grace
You tell me 50 percent of humanity, this world has no space
For me and mine, unless we succumb
To your rule, and stay under your thumb.

A 'chinki' from Assam, A 'chikni kudi' from punjaab
You barely even recognize us as individuals,
what to say of our names and identities junaab?

By the way, could you call your sister 'maal'
Or maybe your mother 'chhinaal'?
Which by the way means 'object' and 'slut' like you call us all.

You can't call your sister or mother that
But wait, isn't that for your Jiju and dad?
To call them these names while all of you together,
Look at me and mine from these frames?

You laugh it off, sometimes participative, rarely apologetic,
mostly a spectator of the game.

You, yes you. You my friend drive the culture of abuse,
the culture of silence, and the culture of shame!


WHAT are you so afraid of?
WHY are you so keen?
On holding on to a past
That has long ONCE been.

Why does my freedom scare you?
Why does my freedom scare you,
My freedom in body, mind and soul?
Why does it scare you?
Why does it scare you,
Me being perfect, complete and whole.

© Anupama Garg 2019

Tuesday 17 September 2019

असुविधाजनक बातें - भाग 4

कल लिखते लिखते प्राइवेसी पर कुछ विचार आये दिमाग में | तो प्राइवेसी या निजता आखिर कुछ है भी, या महज़ एक छलावा है ? देखने में मुद्दा सीधा सपाट है | ज़िन्दगी में जो मेरे घर की चारदीवारी में हो, वो प्राइवेट | जैसे - सेक्स प्राइवेट, बीमारी प्राइवेट, मानसिक रोग प्राइवेट, शादी के बीच की तकलीफ प्राइवेट, भाइयों का झगड़ा प्राइवेट, प्रेम प्रसंग प्राइवेट, क्या खाते हैं प्राइवेट आदि आदि | तो फिर मेरा अगला सवाल - फिर बलात्कार प्राइवेट क्यों नहीं? आत्महत्या, घरेलू हिंसा, कोर्ट केस, हॉनर किलिंग, ये सब प्राइवेट क्यों नहीं?

मुझे नहीं मालूम, कि हममें से वास्तव में कितने लोग प्राइवेसी के कांसेप्ट को वाकई समझते हैं, और कितने इसे मात्र सुविधा की तरह इस्तेमाल करते हैं | लेकिन मुझे जो दिखता है, वो ये है कि प्राइवेसी की आड़ में दबाव, शर्मिंदगी, चुप्पी, डर, धमकियाँ, और पता नहीं कितनी दूसरी चीज़ें छुपाई जाती हैं | प्राइवेसी का हव्वा ही एक लम्बे समय तक औरतों को दवा, इलाज, और डॉक्टर न मिल पाने का कारण था | यही कारण है आज भी बड़ी होती बहुत सी बच्चियां रजोनिवृत्ति या मासिक धर्म या प्रेगनेंसी या सेफ सेक्स से जुड़े सवाल नहीं पूछ पातीं | शहरों में शायद फिर भी कुछ चीज़ों के हालात थोड़े फ़र्क़ हों, मगर मनोरोग आज भी ऐसा विषय है जिनके बारे में कोई खुल नहीं बोलता |

सवाल ये है कि ये प्राइवेसी तब कहाँ चली जाती है, जब अच्छे भले पढ़े लिखे घरों के लड़के, किस लड़की के साथ सोये थे, ये चटकारे ले कर एक दुसरे को बताते हैं? ये प्राइवेसी तब कहाँ चली जाती है, जब PayTM से खरीदे कंडोम्स के ट्रांसेक्शन G B Road के किसी मेडिकल स्टोर के अगेंस्ट दिखता है? इस प्राइवेसी का क्या करेंगे जब डॉक्टर से यौन परामर्श न लेने के कारण यौन रोगों का इलाज नहीं हो पायेगा?

ओह वैसे, शायद आप भूल रहे हों | ऐसे बहुत से लोग हैं, दिव्यांग जन , कुछ विशेष रोगों जैसे पक्षाघात / लकवा, खास तौर से paraplegia से पीड़ित लोग, जिनके लिए प्राइवेसी की संकल्पना सिर्फ नाम मात्र को होती है | वो चाह कर भी प्राइवेसी नहीं हासिल कर पाते, कम से कम सामान्य लोगों जितनी नहीं | मैं ये नहीं कहती कि व्यक्तिगत स्पेस की ज़रुरत नहीं | बस इतना कह रही हूँ कि जिसे हम स्पेस, प्राइवेसी, निजी कहते हैं, अगर वो हमें समय पर मदद मांगने से रोकने लगे, तो किस काम की?

अगर किसी ने अपने निजी #metoo का ज़िक्र प्राइवेसी के चलते न किया होता, तो इतना विमर्श न हुआ होता | अगर लोगों ने हीमोफीलिया, कैंसर, डिप्रेशन के बारे में बात न की होती, तो सहायता समूह न बनते | अगर तलाक, दहेज़ उत्पीड़न, घरेलु हिंसा के बारे में लोग मुंह न खोलने लगते, अगर सती प्रथा को प्राइवेट मसला मान कर इग्नोर किया जाता, अगर बाल विवाह और शरीर की परिपक्वता की बात न की जाती, और ये कह दिया जाता, की ये तो निजी मसले हैं, तो कहाँ होते हम आज?

तो आज के विमर्श में मेरा आपसे सवाल यही है, कि प्राइवेसी सिर्फ सुविधा है, या ज़रुरत? और किस हद तक? वो कौनसा स्तर है, जहाँ प्राइवेसी मर्यादा से बदल कर शर्म बन जाती है?

©Anupama Garg 2019

Monday 16 September 2019

असुविधाजनक बातें - भाग 3

ऐसा क्या है सेक्स के बारे में जो हम उस बारे में बात नहीं करना चाहते ? कहीं ऐसा तो नहीं कि शुरुआत में कपड़े पहनने की जो आदत इंसान ने अपने शरीर को सुरक्षित रखने के लिए डाली थी, कहीं वही हमारे बीच की दीवारें बन गई है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि सुरक्षा से शर्म, और शर्म से चुप्पी की ओर चलते हुए हमने निजीपन या प्राइवेसी को एक अंधेरे कोने में बदल दिया है, जहाँ हम खुद भी नहीं झांक पाते | मुझे इस बात में शुबहा नहीं कि आपकी व्यक्तिगत जिंदगी आपकी अपनी है, मगर मुझे इस बात का अफसोस है कि इस निजता की आड़ लेकर लोग कैसे रिश्तों में दोगलापन बरत पाने की छूट ले लेते हैं |

आप अपने पति या पत्नी के साथ सेक्स की बात भी नहीं करेंगे, आप किसी काउंसलर के पास जाने के बारे में सोचेंगे नहीं, मगर आपकी ही जितनी सीमित सोच वाले किसी दोस्त की ये सलाह कि मल्टी रॉड लगवाने से महिलाएं मोटी हो जाती हैं, मान लेंगे? आप अपने जीवन साथी/यों से बात करने से जी चुरायेंगे, मगर आपको ये उम्मीद है, कि आपके एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर में आप खुश रह पाएंगे | ज़ाहिर सी बात है एथिकल पॉलीएमोरी या नीतिपरक बहुप्रेमी प्रथा के बारे में न तो आपने पढ़ा है, न पढ़ने की ज़ेहमत ही उठाना चाहते हैं | कई जिन्होंने कुछ अधकचरा पढ़ लिया होता है, उन्हें ऐसी बातों की आड़ ले कर सिर्फ सेक्स करना होता है, वो सेक्स जिसके बारे में भी कुछ ख़ास समझते नहीं हैं वे |

अक्सर हम जब पकड़े जाते हैं तो जस्टिफाई भी करते हैं | मगर इतनी हिम्मत नहीं होती कि ये कह सकें, कि एक से ज़्यादा लोगों से प्यार करना है | और उसकी जड़ इस बात में छुपी है, कि आपको सम्बन्ध, सम्भोग और स्नेह में फ़र्क़ करना आता भी नहीं और आप ये फ़र्क़ सीखना चाहते भी नहीं | और अगर कोई और इन मुद्दों पर खुल कर बोले या अपना सच स्वीकार करने की कोशिश करे, तो या तो आप उसे डरा देते हैं, और या उसे शर्मिंदा करने की कोशिश करते हैं | आप हाथों हाथ उसे बेशर्म, गैर जिम्मेदार, इम्मोरल,अनैतिक, धोखेबाज़ और ऐसे ही अनेक शब्दों के तमगे पहना देते हैं |

सच ये है कि संबंधों का कोई जायज या नाजायज होने का तरीका नहीं होता, मगर ऐसा जरूर है कि कुछ लोगों ने किसी वक्त में अपनी सहूलियत के हिसाब से कुछ नियम बनाए थे | सवाल यह है कि क्या वही नियम पीढ़ी दर पीढ़ी हमें ढोते जाने चाहिए ? जिस वक्त दुनिया की आबादी कुछ चंद करोड़ लोग थी, उस वक़्त जो नियम लागू होते हैं क्या आज साढ़े सातअरब की जनसंख्या पर आप वही नियम लागू कर सकते हैं ? क्या यह संभव है कि जो नियम जमीन और जायदाद के चलते बनाए गए थे, और जिनके द्वारा परिवार, विवाह, और एकपत्नी या एक पति रखने की प्रथा चालू की गयी थी, आज भी वही प्रथा चलाकर आप सबको खेती की ज़मीन दे पाएंगे? सबका पेट भर पाएंगे ?

क्या यह संभव है कि मानव अब वह मानव नहीं रहा, और मानव का यह बदलाव अच्छा या बुरा नहीं, मात्र एक तथ्य है? यह तथ्य स्वीकारने में समय और प्रयास दोनों ही लगेंगे, कि समाज के ढांचे , और संबंधों के आमूलचूल स्ट्रक्चर में कुछ परिवर्तन तो आया ही है, कुछ जारी है और कुछ आता रहेगा | इसलिए संवाद करना और भी जरूरी है |

ना तो मैं यह कह रही हूं कि आप हवा के बहाव में बह जाएं और ना ही यह क्या बरगद के पेड़ की तरह बंद कर पुरानी लीक पकड़े रहें | मैं सिर्फ यह कह रही हूं कि यदि इन मुद्दों के बारे में हम खुला संवाद कर पाएंगे तो बदलती मानवीय सभ्यता की बदलती जरूरतों को भी आराम से एड्रेस कर पाएंगे | इसका नतीजा यह होगा कि बेवजह के टकराव, बेवजह के झूठ, लाचारी, और बेईमानी में निश्चित ही कमी आएगी और ईमानदारी से बने ऐसे रिश्ते आने वाली पीढ़ी की भावनाओं, विचारों और मानसिकता को बेहतर तो जरूर बनाएंगे |

लेकिन यह हो सिर्फ तभी पाएगा जब हम अपने पहले से जमे हुए विचारों को, खुद के लिए बदलने में दिलचस्पी लेंगे | यह तब हो पाएगा जब हम परिवार के ढांचे, समाज की संरचना और नैतिकता की मिसालों को बदलने के लिए तैयार होंगे | ज़ाहिर सी बात है यह काम आसान नहीं होगा | यह काम कुछ 2, 5, 10 लोगों के करने का भी नहीं है | यह काम समूची मानवता को सामूहिक तौर पर करना होगा | अब सवाल यह है यह करने के लिए पहला कदम क्या होगा? मेरी नज़र में, संवाद और विमर्श, इस बदलाव की ओर पहला सुदृढ़ कदम होगा |

"सवाल यह नहीं कि मुद्दा क्या है | सवाल यह है कि संवाद कैसा हो ? विमर्श कैसा हो?

©Anupama Garg 2019

Sunday 15 September 2019

असुविधाजनक बातें - भाग 2

कल की बात से आगे बढ़ाते हुए......

एक सवाल आज ही मुझसे किसी ने ने पूछा - डेटिंग तक तो ठीक है, मगर आपको सेक्स के बारे में बात करना ज़रूरी क्यों लगता है? मेरा उनसे प्रतिप्रश्न था - यदि मैं जियोग्राफी या गणित या फिल्मों की बात करती तो आपको दिक्कत होती?

वे - नहीं,मगर सेक्स व्यक्तिगत है |
मैं - तो क्या मैं स्वास्थ्य की बात कर लूँ ?
वे - हाँ, क्यों नहीं?
मैं - मुझे जब डिप्रेशन हुआ था, उस बारे में?
वे - हाँ हाँ ज़रूर, क्यों नहीं ?
मैं - लेकिन वो भी तो व्यक्तिगत है?
वे - हाँ लेकिन सेक्स के बारे में बात नहीं करते |
मैं - वो मैं समझी, मगर क्यों?
वे - यार तुम तो ज़िद पर अड़ गयी हो !
मैं - चलिए कुछ सवालों के जवाब दीजिये | आपकी शादी हुए १० साल से ज़्यादा हुए, बच्चे भी हैं, सेक्स किया था?
वे - वो तो सब करते हैं |
मैं - लेकिन Asexual लोग नहीं करते | आप जानते हैं, asexuality क्या होती है?
वे - ......(सन्नाटा)
मैं - छोड़िये, दूसरा सवाल! आप अब भी सेक्स करते हैं?
वे - ( सकुचाते हुए) - हाँ, पर उतना नहीं |
मैं - खाना भी बहुत कम खाते होंगे फिर?
वे - दोनों में क्या सम्बन्ध है? खाना तो बीवी उतना ही खिलाती है |
मैं - तो सेक्स क्यों नहीं करती? ये आप जानते हैं?
वे - नहीं, कहती मूड नहीं और मैं ज़ोर नहीं डालता |
मैं - आपको क्या मन करता है?
वे - अब मैं इस पर क्या ही बोलूं? सेक्स की इच्छा तो होती ही है |
मैं - तो आप मानते हैं की ज़रूरी है?
वे - हाँ वो तो है ही |
मैं - और आपको लगता है, कि इस विषय में आपका अपनी पत्नी से बात करना उचित और ज़रूरी नहीं है?
वे - शायद तुम ठीक कह रही हो | मुझे तो ये भी नहीं पता कि उसे 15 साल बाद पसंद क्या है?
मैं - अब अगर मैंने सेक्स की बात अपनी वाल पर, या व्हाट्सप्प पर नहीं की होती, तो क्या आपको पता चलता कि एसेक्सुअलिटी (asexuality) नाम की कोई चीज़ भी है? या कि आपको अपनी पत्नी की पसंद - नापसंद भी नहीं पता - क्या आप ये जान पाते?

सवाल यह है कि वह कौन से मुद्दे हैं जिन्हें हम सुलझाना तो चाहते हैं, मगर जिनके बारे में हम बात नहीं करना चाहते, जिनके बारे में हमें संवाद करना और विमर्श करना कोई सिखाता नहीं ? इन मुद्दों में से सवाल सेक्स के इर्द-गिर्द घूमते हैं चाहे वह शादी में पति-पत्नी के बीच बनने वाला यौन संबंध हो, या वह जबरदस्ती किया गया किसी का बलात्कार, या यौन कुंठा ओं के बारे में के बारे में किसी से बात ना कर पाने की लाचारी, और या फिर प्यार और सेक्स में फर्क न कर पाने से पैदा हुयी उलझन |

ये सारे ही सवाल ऐसे हैं, जिनके कोई सीधे जवाब हैं ही नहीं | इन सभी सवालों से हो कर गुजरने वाले रास्ते और गलियां भूल भुलईंया जैसे लग सकते हैं | और इन पहेलियों को सुलझाने का एक ही तरीका है - लगातार संवाद | जब हर स्तर पर संवाद संभव होगा,तभी इन सवालों के बहुमुखी जवाब भी मिलेंगे |

© Anupama Garg 2019

Friday 13 September 2019

असुविधाजनक बातें - भाग 1

सवाल ये नहीं है कि मुद्दा क्या है? सवाल ये है कि विमर्श कैसा हो? संवाद कैसा हो?

मुझे नहीं मालूम कि हम में से कितने लोग वास्तव में रेप की बात करना चाहते हैं, और कितने लोगों को रेप के बारे में बात करना सिर्फ कूल लगता है | मुझे यह भी नहीं मालूम कि कितने लोगों को रेप के बारे में सिर्फ इसलिए बात करनी होती है क्योंकि बलात्कार के बारे में बात करना जरूरी है, या इसलिये क्योंकि उनके आसपास हर कोई बलात्कार के बारे में बात करता है और क्योंकि उन्हें एक सोशल स्ट्रक्चर में फिट होना है | 

लेकिन मुझे यह जरूर मालूम है कि बलात्कार जैसे मुद्दों के बारे में जितना कैजुअली हम लोग बात करते हैं उतने कैज़ुअल ये मुद्दे है नहीं | इन मुद्दों की गंभीरता को सिर्फ सजा देने भर से एड्रेस नहीं किया जा सकता | इन मुद्दों को एड्रेस करने के लिए यह जरूरी है कि इनके बारे में गंभीरता से विमर्श हो | इस विमर्श में ये ढूंढने की कोशिश की जाए कि आखिर बलात्कारी मानसिकता कैसी है ? वह क्या है जो किसी पुरुष, या किसी स्त्री को अपनी इच्छा दूसरे पर थोपने के लिए मजबूर कर देता है?

कहीं ऐसा तो नहीं कि हम यह भूल जा रहे हैं कि बलात्कार पुरुष का भी हो सकता है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम बलात्कार जैसे मुद्दों की आड़ में कुछ दूसरे सवाल नजरअंदाज कर रहे हों ? कुछ ऐसे मुद्दे जिन्हें समझाने का कोई तरीका हमें नहीं आता, संवाद से जुड़े मुद्दे, जिनमें बात करनी पड़े ऐसे मुद्दे, जिनमें अपना आडम्बर छोड़ कर, अपना झूठ छोड़ कर, अपनी ज़िम्मेदारी उठानी पड़े, जिनमें सामने वाले को समझना पड़े - कहीं ऐसे मुद्दों को न एड्रेस कर पाने का नतीजा तो नहीं, कि कोई भी मुद्दा हो, हम विमर्श कर ही नहीं पाते ? कहीं ऐसा तो नहीं कि 'बलात्कार' 'बलात्कार' चिल्लाने से, नारे लगाने से, हमें जो ऊपरी संतुष्टि मिलती है, उसी संतुष्टि तक हमारी सोच सीमित है?

सवाल ये नहीं है कि मुद्दा क्या है? सवाल ये है कि विमर्श कैसा हो? संवाद कैसा हो?

© Anupama Garg