Monday 17 November 2014

Sindoor

सिन्दूर 

सदियाँ बीत गयीं,
मैंने हनुमान को कहा था,
"सिन्दूर की रेख,
तुम्हारे प्रभु की, आयु बढाती है !"
और.…
उसने पोत लिया,
सारे बदन पर !

फिर,
सदियों सदियों,
उसी सिन्दूर की दुहाई दी गयी मुझे ।
और उसके धुल जाते ही,
थोप दी जाने लगी,
सफेदी मेरे सारे जीवन पर।

अब,
सदियाँ बीत गयी हैं।
आज
मैं सिन्दूर नहीं लगाती,
किसी राम की उम्र नहीं बढाती।
तुम्हारा समाज मुझे निर्लज्ज कहता है।

(तुम्हारा समाज वैसे पहले भी अलग नहीं था )

मैं,
अब सीता नहीं रही;
आखिर सदियों पहले का राम आज भी,
राम  ही तो रहता है?

© Anupama Garg


2 comments:

  1. अच्छी लगी कविता, अंतिम पैरे पर लगा कि कविता को और आगे बढना चाहिए था ...

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  2. @Mukul ji,

    Aage badhaiye na, tendem kavitayein likhte hain, mil kar :)

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